वृद्धा के आम
एक वृद्धा लिए टोकरी,
बैठी है राह किनारे।
आते जाते पाथिक को,
उसके बेबस नयन निहारे।
ना कोई ले, ना कोई छुए ,
पर वो बारम्बार सँवारे।
कहते कहते कंठ सुख गए,
कि सबसे मीठे आम हमारे।
श्वेत केश ,एकाक्ष वृद्धा,
गई ज्यों पीने जल ।
घटी एक घटना,
बन्दर ले भगा फल।
असहाय वृद्धा , करती रुदन क्लेश मन।
इधर सूर्य की तपिश ,जला रही है तन ।
सुसज्जित ठेलों के,
बिक गए सारे आम ।
जस के तस भरी है टोकरी,
होने को है शाम।
“अनंत कुमार मल्ल”