वृद्धावस्था
चला निरंतर बहुत मगर, लड़खड़ा रहा हूँ अब,
जरा ज़रा-सी याद में, मैं बड़बड़ा रहा हूँ अब|
अब कोई अपना ‘मयंक’, थाम ले दामन मेरा,
दन्तहीन नखशिर गल, मैं तड़फड़ा रहा हूँ अब||
कभी लगाये पेड़ मैंने, जो हरे-भरे मुरझा गए,
फूल कोमल डालियों में, छिपे जाकर सो गए|
कोयल सी भरता कूक, बगिया रखा रहा हूँ अब,
पपीहा सी प्यास लिए, मैं गिड़गिड़ा रहा हूँ अब||
फटकते न पास अपने, कोई भ्रमर सुगंध ना,
ऊब गईं तितलियां, सारा चमन उजड़ गया,
देखने को अपनापन, मैं टकटका रहा हूँ अब|
माली अकेला बाग में, मैं छटपटा रहा हूँ अब||
जग की देख कुरीतियां, फड़फड़ा रहा हूँ अब,
कोई बंधनमुक्त कर दे, मैं तड़फड़ा रहा हूँ अब|
मुक्ति भी आसान नहीं, इतना जान ले ‘मयंक’
मोह-बंधन से अलग, मैं हड़बड़ा रहा हूँ अब ||
✍के.आर.परमाल “मयंक”