वृक्ष की संवेदना
हे मानव है
मेरा क्या क़सूर
शहरी बस्ती बसाने
में क्यूँ काँटे मुझे
हर रोज़
मेरी संवेदना
अपने से काहे
करें यूँ दूर
चिड़ियों का क्यूँ
छीने बसेरा
अपना घर बसाने को,
हरे-भरे पंख
फेलाकर,*धूप वर्षा*
से बचाकर
छाया हवा तुझको
दे जाता हूँ
फिर क्यूँ काटे मुझे
तुझको अन्न-कण देने
में ,*फल*-*फूल*,*तरकारी*
से लद जाता हूँ
मेरी संवेदना का
विखंडन कर
काहे करें अपने से
मुझको दूर
घर की तेरी
रौनक़ बड़ा दूँ
जब करे
मेरी सेवा हर रोज़
देता हूँ स्वच्छ प्राण
वायु,*लेता क्या हूँ*
तुमसे,
सहता हूँ
तुम्हारी लिए
आँधी,*तूफ़ान और मूसला वर्षा*
को, खेती को बचाने में
मेरी संवेदना
अपने से काहे
करें यूँ दूर।।
स्वरचित एवं मौलिक-डॉ. वैशाली वर्मा✍🏻😇