वृक्ष और बेटी
-:वृक्ष और बेटी:-
तुम फलते हो मैं खिलती हूँ,
तुम कटते हो मैं मिटती हूँ;
तुम उनके स्वार्थ की खातिर,
मैं उनके सपनों की खातिर।
मैं बनकर माँ बेटी पत्नी
लुटती और लूटाती अपनी
ख्वाहिशों की मंजिल ढहाकर
उनका घर आँगन सजाकर।
तुम चहकाती आँगन उनका
मैं भर देता दामन उनका,
फिर क्यों तुम मारी जाती हो
क्यों फिर मै काटा जाता हूँ।
मैं देता हूँ शीतल छाया
फिर भी जलती मेरी काया,
तुम उनका हो वंश बढाती
क्यों गर्भ में मारी जाती।
हे!मगरुर मनुज तु रखना
याद हमारी बातों को,
दरक़ जाएंगे जब हम तेरी
ढह जाएगी ऊँची मंजिल।
क्योंकि हम है नींव तुम्हारे
सपनों की कंगुरों की।
हम लुटाते रहे अपना सर्वस्व,
वो मिटाते रहे हमारा अस्तित्व।
-:रचयिता:-
के.वाणिका”दीप”
जालोर,राजस्थान