वृंदावन
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
हो जाएगा इसी बहाने ,उस सांवरे का चरन वंदन।
उसकी एक झलक पाने को दिल ये तड़पता रहता है,
देख लेगा उसकी सूरत तो,कर लेगा उसका अभिनन्दन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
दर्शन करके चरण पखारूं ।
मन है के बस उसे ही निहारूँ।
मन कहता है हर दिन लगाऊं ,कान्हा के माथे पर चंदन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
बांकेविहारी गिरधारी ,हम तुमसे क़भी
भी दूर नहीं हैं।
तेरे दर तक आ न सकें ,हम इतने भी मजबूर नहीं हैं।
प्रफुल्लित ऊर्जित होकर मन का, वृंदावन में होगा समर्पन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
मेरे जेहन में गूँजती ,बस तेरी ही कहानी होगी।
तूँ बाँसुरी लिए खड़ा होगा और बगल में राधारानी होंगी।
रोम – रोम खिल उठेगा उस क्षण , होगा जब ठकुरानी का दर्शन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
छोड़ – छाड़ हर काम चलूँगा।
मन कहता है तेरे धाम चलूँगा।
बाँसुरी वाले देर न कर ,अब तो सुन ले इस मन का क्रंदन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
बिन मर्जी के तेरे कान्हा ,एक पत्ता भी हिलता नहीं।
कारण तो बतला दे मोहन ,क्यों मुझसे तूं मिलता नहीं।
दरश की प्यास बुझाने खातिर, अबतो बरसा दे भादो में सावन।
मन कहता है घूम के आएं ,धाम कान्हा का वृंदावन।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी