वीवी और हादसा…।
व्यंग्य…।।
वीवी और हादसा…।।
क्या जिक्र करुं घटती है घटना ऐसी क्यूँ अक्सर.।
क्यों होते रहतें हादसे ऐसे जीवन मे हम इंसान के.।
रूह कांप रहें थे मेरे और था बड़ा अजीब हीं मंजर.।
आशार दिखाई दे रहें थे मुझे किसी नये तूफान के.।
साथ वीवी के मेरे खड़ा था इक शख्स बाहें मोड़कर.।
वीवी भी खड़ी थी मेरी दरवाजे पे नई वेलन तान के.।
आवाज रूक गये थें मेरे हलक तक ही मेरी आकर.।
जब पहचाना चेहरा नजदीक जा मैने उस इंसान के.।
था लगा झटका मुझे उसे अपने घर आया देखकर.।
मन मे सोचा खैर नही अब तो “विनोद” तेरे जान के.।
जिसे पीट डाला था आज तूने इक लफंगा जानकर.।
वो शख्स तो निकला तेेरी वीवी के पहचान…….. के.।
हूआ यूँ ,था खड़ा मै आज अपने नुक्कड़ के मोड़ पर.।
इक शख्स आया भागता और मुझसे टकराया जान के.।
गिर पड़ा था रास्ते पर उस वक्त मै कुछ इस कदर.।
कि सभी तारें नजर आ रहें थे मुझे आसमान के.।
किसी तरह संभाला खुद को और मैने भीे उठकर.।
दे डाला इक जोर का उस शख्स के नीचे कान के.।
भागा वो सरपट मुझसे अपनी जान तभी छूड़ाकर.।
डर गया था शायद मुझको खुद से तगड़ा मान……के.।
था खड़ा वही शख्स आज घर पे मेरे हीं आकर.।
कह डाली थी शायद सारी बातें उसने वीवी से आन के.।
वैसे तो था मै घुस गया चुप चाप अपने घर के अंदर.।
पर आँखों मे मेरे साये पसरे थें डर और अपमान के.।
वीवी देख रही थी मेरी मुझको आँखें अपनी तरेर कर.।
सच कहता हूं फक्ते ऊड़ चूके थे मेरे प्राण………..के.।
शोले बरस रहें थे आँखों से उसकी रह रह………..कर।
जिसे पीटा था हमने वो भाई थें वीवी के दूर जहान के.।
धो डाला मेरी वीवी ने मुझे उसके सामने ही जमकर.।
फिक्र ना थी उसे अपने पति की ईज्जत और सम्मान के.।
वो चलाती रही तानो की गोलियां लगातार हीं मुझपर.।
मै सो गया चुपचाप जाकर कमरे मे चादर तान के.।
क्या जिक्र करुं घटती है घटना ऐसी क्यूँ अक्सर.।
क्यों होते रहतें हादसे ऐसे जीवन मे हम इंसान के.।
विनोद सिन्हा-“सुदामा”