वीरस्य भूषणम्
डा. अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
*वीरस्य भूषणम् *
सेवा ही है धर्म हमारा
सेवा को ही कर्म है माना
सेवा से संसार सजात्ते
सेवा कर उपकार कमाते ||
कर्म को हमने पूजा माना
कर्म किए तब धर्म कामना
पीड़ा से है जंग हमारी
कर्म किए तो पीड़ा हारी ||
सकल विश्व को अपना मान
करते हैं हम कर्म महान
देश धर्म और जात पात को
नहीं देते हम किंचित संज्ञान ||
तुमको तुमसे चुरा लायेंगे
साथ् तुम्हारा सदा निभायेंगे
जब जब संकट आहट होगी
तब तब हमरी आमद होगी ||
दिल से तुमको हमने चाहा
सामाजिक कर्तव्य निबाहा
एक अकेला कर न सके कुछ
इसीलिए है हाँथ मिलाया ||
तुम भी हमसे सीख जाओगे
आज नही तो कल आओगे
दुख में सबका साथ निभाना
देखो साथी छोड़ ना जाना ||
कर्तव्यों के थाती बन कर
सहानुभूति संवेदन अनुभव कर
दर्द वेदना को बिसराना
देखो बिल्कुल ना घबराना ||
दुनिया तुमसे सीख रही है
पल पल आँखे खोल रही है
तकनीकी संसाधन जोड़े
जीवन में सुख साधन थोड़े ||
संवादों की माया अद्भुत
गांठ हृदय की खोल के
अब साफ साफ तू बोल दे
छल का जाल तू तोड़ दे ||
स्वार्थ कपट का विष ना घोलूँ
सबको एक ही तकड़ी तोलू
मेरी चाहत विश्व समर्पित
आसक्ति के बन्धन खोलूँ ||