वीरव्रती बंटी
तू मानवता के मूर्त्तमान,
हे धर्मवीर ! तुझसे सम्मान
प्रकृति के सदय पोषक तू,
कंपन-व्यथन के अवशोषक तू |
नित भिडे धरा पर शोषक से तू ;
कवलित कर दे त्वरित रोषण से तू |
दें कृपा तूझ पर पूर्ण दिनमान
हे वीर ! तूझसे सबका सम्मान !
क्या कमी तूझमें यह नहीं विषय है
धरा जानती, तू वीर ह्रदय है
अप्रतिम शौर्य तेरा सौंदर्य
स्पष्टता, सरलता वही माधुर्य
तू वीर-व्रती, धर्मनिष्ठ पौरूष का अभिमानी है,
तू दीनता के रक्षक, तु सेवक स्वाभिमानी है;
तू व्यथित ह्रदय को सींचित् करता अभय का दानी है,
तू नैतिकता के रक्षण में प्रबुद्धों का अनुगामी है |
आज समय की बयारों में
धुंध भरी है हर गली-गलियारों में,
चाक- चौबंद विस्मृत पड़े हैं
कुछ तुच्छ कायरता पर अड़े हैं |
भूखों, पददलितों को सदैव जो जोड़ता-
भला यह वीर उन्हें क्यों तोड़ता ?
भुजाएँ उठति चतुर्दिक अभावों पर,
राष्ट्र-संस्कृति तोड़ने वाले कुप्रभावों पर,
निरत उद्योगी, नहीं असहाय ! स्नेह कहाँ लाता बाधाओं पर;
है सतत् खड़ा आज भी, समाज की हर विधाओं पर |
भारतवर्ष के वीरों की शान रही है…
उन्नत शौर्य उच्च त्याग पहचान रही है…
हम ऐसे वीरों को ना छोड दें,
भाग्य अज्ञानवश किंचित् ना फोड दें !
आज जो दीख रहा भयावह दृश्य है…
बहुत वृहद् उसका परिदृश्य है ,
बचा लें हों संगठित अनैतिक संहार को…
अन्यथा ना दोष देना संसार को|
कुछ अपने ईर्ष्या में निमग्न हैं
ये कायर बहुत बडे प्रसन्न हैं
लुट रही ‘अस्मत’ गलियारों में,
हर चौक, शहर, बाजारों में,
हो संगठित अभी भी नव मोड दे दो…
छोड हर संकुचन सतत् जोड दे दो !
आज दीख- सुन चुका जो निकृष्ट कथन है…
उसके पीछे आज ब्राह्मणों का विघटन है!
घट जाए अनैतिक घटना अकस्मात्,
कल यदि वे घुस जाएँ घर में बलात् ,
फिर भी क्या अपने संगठित होंगे ?
नहीं ! नहीं ! विघटित रहेंगे ?
किस स्वार्थ में डूबे लड़े !
किस अनर्थ के लिए अड़े !
स्वभाव से जो निरत वीर,
क्यों रहे प्रतिपल अधीर;
रहा विनाशक जो प्रतिपल बढते आतंक का घंटी…
युग-युग जियो धरणीसुत! अनंत नमन् तुझको हे बंटी !
अखंड भारत अमर रहे !
जय हिन्द !
© कवि पं आलोक पाण्डेय