विस्मरण
जब चाह नहीं थी जीने की
तब तुमने अमृत पिला दिया
मर चुकी थी हर इच्छा मेरी
सब आशाएं हत्प्राण हुई
अंतर की उमंगे शून्य हुई
तन की ऊर्जा मृतप्राण हुई
जीवन मृत हो चुका था जब सारा
क्यों तुमने आकर जिला दिया
क्यों इस स्पंदन हो रहा देह में
मुझको यह कौतूहल है
सांसों का आवागमन रुके
मिलता ना कोई इसका हल है
विस्मरण की एक अपेक्षा थी
सुधियों से फिर क्यों मिला दिया