विष बो रहे समाज में सरेआम
टुकड़ों में समाज को तोड़ रहे
लेकर धर्म औ जाति का नाम
स्वार्थ सिद्धि के लिए राजनेता
विष बो रहे समाज में सरेआम
ईर्ष्या, द्वेष और बैर भाव से हो
रही है सामाजिकता तार तार
पारस्परिक विश्वास का भाव
अब लोगों में मिलना दुश्वार
न जाने कब भुला बैठा समाज
पुरखों की सहजीविता का मंत्र
लाभ की खातिर रच रहे लोग
एक दूजों के खिलाफ षडयंत्र
पूंजीपतियों की कठपुतली बने
छटपटा रहे आज लोग बहुसंख्य
असलियत को समझने को तैयार
नहीं, सो झेल रहे हालात के दंश