विषय-पिता
विधा-कविता
वह शख्श पिता होता है..
जीना जो हमें सिखाएं
खुद जज्बात दफ़न कर
जो सख़्ती से पेश आए
खुद गम सारे पी कर
हमेशा जो मुस्कुराए
पहन के टूटी चप्पलें
चलता हो सर उठाएं
वह शख्स पिता होता है …
खुद संस्कार जो सिखाएं
भटकती है जो मंजिल तो
फिर वो रास्ता दिखाएं
जो भेदभाव को हटाए
लड़ना अन्याय से सिखाएं
संतान के लिए जो अपनी
खुद को भी हार जाए
वह शख्श पिता होता है ….
भूमिका जो दोहरी निभाए
प्यार मां से कम न करता
खुद के आसूं जो पी जाए
संतान के लिए दीवार जो गिराए
आशा का महल लेता हो उठाए
इस कवायद में उम्र बीत जाए
काश ! हम पहले जो समझ पाये
स्वरचित व मौलिक
~ सूर्येन्दु मिश्र ‘सूर्य’
लार टाऊन, देवरिया (उ0प्र0)