विश्वास
ठोकर लग जाती है
जब विश्वासी बन कर
अपना कोई छलता है
अंतहीन विश्वास पर
विश्वासघात का परचम
फहराता है ,
ठोकर लग जाती है
जब अपना कोई छलता है
अक्सर मन पूछता
कि क्यों भरोसा किया इतना,
जब पता है इस जग की रीत
अपना ही विभीषण बनता है,
ठोकर लग जाती है
जब अपना कोई
विश्वासी बन छलता है,
स्वार्थ का मायाजाल हो फैला,
अंधकार हो स्याह,
अपनेपन का सूरज
फिर कहाँ निकलता है,
ठोकर लग जाती है
जब आपना कोई
विश्वासी बन छलता है,
निराशाओं का खारा समंदर फैलता है,
उमीदों का मीठा झरना
फिर कहाँ झरता है
ठोकर लग जाती है
जब अपना कोई
विश्वासी बन कर छलता है,
दम्भ की हिम शिखा हो विशाल
सर्वज्ञ ढकता है
नम्रता का सोता
फिर कहाँ फटता है ,
ठोकर लग ही जाती है
जब अपना कोई
विश्वासी बन छलता है