विश्वास की नाप
विश्वास की नाप
धरती नापी, सागर नापा , नाप लिया आकाश को।
किंतु कभी न नाप सका तू , मानव के विश्वास को।।
उछल कूद कर पहुंच गया तू , सबसे ऊंची चोटी पर,
फिर भी दबा हुआ कीचड़ में, अपनी नीयत खोटी कर,
नाप लिया भू-गर्भ को तूने, नाप लिया इतिहास को।
सागर के भीतर नदियां, पर्वत, गर्तों को नाप लिया,
कितनी ऊंची उठती लहरें, कितनी गिरतीं भांप लिया,
सागर की गहराई नापी, वायु के अहसास को।
पंख लगाकर पहुंच गया तू , चांद की माटी ले आया,
नाप लिया जल, जीवन उस पर, रहने को मुंह फैलाया,
सभी ग्रहों की दूरी नापी, उसके त्रिज्या व्यास को।
सांपों सी सड़कों पर सरपट, बिना पैर के दौड़ रहा,
लगातार बेतार लिए बढ़ती दूरी को जोड़ रहा,
दिन प्रतिदिन तू नाप रहा, प्रेमी पागल उपहास को।।
—– सतगुरु प्रेमी