विवशता
सम्पादक महोदय ने सुझाया
रचना की धार
छुरी की तरह
सान पर चढ़ा कर
पत्थर पर घिस कर
पैनी, और पैनी, और पैनी करो
इतनी पैनी तीखी और धारदार
कि
उसकी छुअन ही
काट डाले
समाज की बुराइयों को
और फिर
फेंक दो
भीड़ में
मैं विचार मग्न हूँ
किस-किस के आवरण उतारूँगी?
आज तो
लिप्त है हमारा समाज
नैतिक पतन और भ्रष्टाचार के
भड़कीले-चमकीले आवरण में
मैं भी
कहाँ अलग हूँ उससे
चोर दरवाजे से ही सही
तलाशती हूँ सहारे
जीने के लिए
बनाती हूँ नित नई सीढ़ियाँ
दलदल से
उभरने के लिए
बेशक
हर नई सीढ़ी
मुझे दलदल में
और गहरे डुबो दे
बेशक
हर नया सहारा
छीन ले जाए मुझसे
मेरे व्यक्तित्व का एक और अंश
और बदले में
मिल जाए कोई नया दंश
जीवन भर टीसने के लिए
पड़ जाते हैं
मन की
उर्वर धरती पर जब
वेदना के बीज
और लहलहाती हैं
कविता की फसलें
जो जंग लगी मानसिकता की
खुट्टल दरातियों से भी
डर कर
सहम जाती हैं
ऐसे में
मैं कैसे चढ़ाऊँ
रचना की
छुरियों पर सान
कैसे घिसूँ उसे
कठोर
वास्तविकता के पत्थर पर?