विवशता की कीमत
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विवशता की कीमत-
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“कितने की है यह मूर्ति ?”
“सा’ब जी ,पाँच सौ रुपये की।”निरीह कातर स्वर उभरा
“क्या..?लूट मची है क्या ?ऐसा क्या है तेरी इस मूर्ति में ?”मुँह बनाते बोला वह
“सा’ब जी ,बचपन से मूर्तियाँ बना कर आपको बेचती रही ओना-पोना जो आपने दिया ,ले लिया।माँ का आपरेशन कराना है सा’ब जी। हजारों रुपये जमा करना है।”रूधा गला और आँख के आँसू शामली की व्यथा -वेदना कह रहे थे।
“न, मैं तो डेढ़ सौ दूँगा ,लेना है तो ले ..।”
शामली ने चुपचाप रुपये लिए और आँसू पौंछते वापिस मुड़ गयी ।
“सुन , अगर जैसी मूर्ति कहूँ वो बनायेगी?अच्छी कीमत मिल जाएगी!”
“जी सा’ब जी …कैसी ?”एक आस उभरी
“मैथुनरत् युगल ..।”अधेड़ आबनूसी चेहरे पर कुटिलता उभरी।
“पर सा’ब जी ….मैं इस तरह की मूर्तियाँ नहीं बनाती। क्षमा करें।”
“सोच ले फिर से, कला है तेरे पास ।माँ का जीवन चाहिये या…।”उसने बात अधूरी छोड़ी।आँखों से काइयाँपन झलकने लगा था। शामली के किशोर तन को पीछे छोड़ते युवावस्था आने लगी थी।
“ठीक है सा’ब…।शाम को ले आऊँगी।”एक गहरी उसाँस ले शामली ने
“लो सा’ब …..आपकी मूर्ति।”मूर्ति से कपड़ा हटाते बोली शामली
“गज़ब,..वाह !!क्या शाहकार है।”अधेड़ की आँखें विस्मय से फैल गयीं
“ला सा’ब 1500रुपये ।”
“अरे पागल है क्या ?मात्र 500 मिलेंगे।ये ले …”कहते हुये अधेड़ ने पाँच सौ का नोट बढ़ाया।
“सा’ब जी जिस विवशता का लाभ उठाते रहे अब तक ,वो तो सुबह ही खतम हो गयी। अब इस के पूरे 1500ही लूँगी।”
“मतलब…।”अधेड़ दुकानदार शामली के बदले तेवर से हैरान था।
“माँ नहीं रही ।पर वादा किया था ये मूर्ति देने का ….सो ले आई। देते हो या कहीं और ले जाऊँ ?दुगनी कीमत कोई भी देदेगा सा’ब!” कहते हुये शामली ने मूर्ति उठाई आवाज में विवशता नहीं आत्मविश्वास था।
स्वरचित ,मौलिक
मनोरमा जैन पाखी