विलुप्त शिक्षा
आपने भी सुना होगा कि शिक्षा अर्थात ज्ञान एक ऐसी जलती हुई मशाल है जिसका प्रकाश कभी कम नहीं होता , सूरज की रोशनी में आप बाहर की प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं किंतु ज्ञान की मशाल से आप अपने अंतर्मन को भी साफ-साफ देख सकते हैं । इस रोशनी की लौ कभी कम नहीं होती। किंतु फिर यह “विलुप्त शिक्षा” का क्या रहस्य है? शिक्षा तो विस्तृत आयाम है, विलुप्त अर्थात गायब । शिक्षा ऐसी जो गायब हो गई हो ! शिक्षा तो कभी विलुप्त हो ही नहीं सकती..
वह कुछ तो आपके परीक्षा के परिणाम से तथा कुछ आपके व्यवहार से देखी जाती है।
हमारे बच्चे गलतियां करने से नहीं डरते ना ही शर्मिंदा होते हैं बल्कि उन गलतियों की भनक किसी को ना लग जाए इस बात से घबराते हैं कल कक्षा 11वीं के छात्र को मैंने समझाया “बेटा हिंदी के विषय पर थोड़ा ध्यान दिया कीजिए आपके उत्तर माला में वर्तनी की भूल के साथ-साथ वाक्य दोष भी हैं इस तरह तो आप परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाएंगे” छात्र ने कहा, “हां मैम ! मैं अवश्य करूंगा बस आप से गुजारिश है कि इस बात की भनक किसी को ना लगे कि मैं हिंदी विषय में इतना अधिक कमजोर हूं”।
इस बात पर मुझे हँसी भी आई और करुणा भी । हँसी इसलिए आई कि क्या कोई अपनी कमियां छुपा पाता है? क्या यह संभव है कि यह बात किसी को पता नहीं चलेगी? और करुणा इसलिए जागी कि वह छात्र मेरा जीवन के किन मूल्यों को लेकर बड़ा हो रहा है वह पल तो रहा था किंतु वह किन भावनाओं को साथ लेकर पल रहा था, जहां वह सबके सामने स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकता । वह बच्चा आलोचनाओं से डर कर अपने व्यक्तित्व से जूझ रही कमियों को दूर करने के बजाय उसे छिपाने पर ज्यादा यकीन रखता है।
वह शिक्षक जो उसका मार्गदर्शन करते आ रहे हैं तथा जिन विषयों को पढ़कर वह बड़ा हो रहा है, जिन पाठ्यक्रमों का वह अब तक अनुसरण करता आया है क्या इसीलिए कि वह अपने व्यक्तित्व के साथ जुड़ रही कमियों को गुप्त रखें, इस आधार पर तो हम यह कह सकते हैं कि हमारी दी हुई शिक्षा कहीं जाकर विलुप्त हो रही है।
कल के उस वार्तालाप के बाद मेरा मन कुछ अनमना सा हो गया। मैं सोचने लगी कि ऐसे कई पाठ हमने पढ़ाए जिनका उद्देश्य बच्चों को निडर बनाना था। बच्चों के स्वभाव में ईमानदारी, परोपकारी, दयालुता, स्पष्टवादीता, निष्पक्षता, सन्मार्ग, अहिंसा आदि समावेशों का होना था, किंतु शायद हम चूक रहे हैं!
शिक्षकों पर पाठ्यक्रम को पूरा कराने का दबाव इतना अधिक रहता है कि पाठ से मिलने वाली सीख का क्षेत्रफल घटकर प्रश्न उत्तरों की सीमा के दायरे में ही दम तोड़ देता है। इन्हीं कारणों से लेखक जिन भावनाओं को पाठकों तक पहुंचाना चाहता है पाठक उनसे पूर्णत: अछूते रह जाते हैं।
आप सभी से अनुरोध है कि इस विचार पर अपनी भावनाएं अवश्य साझा करें।