विरोध का चरित्र विरोधात्मक नहीं है
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विरोध का चरित्र विरोधात्मक नहीं है.
अवरोध शब्दों का अवरोधात्मक नहीं है.
शब्दों में चरित्र कहते हैं मन्त्रों का है.
किन्तु, शब्द तो पुरोहितात्म्क नहीं है.
व्याख्या जैसी हो,विचार चाहे जैसे हों.
कर्म किन्तु,बिल्कुल रचनात्मक नहीं है.
आक्रोश गहन है हर आदमी के भीतर.
शर्त रखे कोई अभी ध्वंसात्मक नहीं है.
विद्रोह यथावत है सिर्फ परचम उठे हैं.
कैसे कहोगे कि मुखिया नारात्मक नहीं है.
भूख भीड़ का,वादे के उलट भूख अभी भी.
कैसे कहेंगे कि नेता सत्तात्मक नहीं है.
व्यवस्था पर अनिर्णीत विवेचना होगी.
व्यवस्था क्योंकि व्यवस्थात्मक नहीं है.
आस्था खुद पर मेरा डगमगाने लगा है.
मेरे नेता की आस्था आस्थात्म्क नहीं है.
विज्ञान जब ब्रह्म से पर्दा उठा पा सकेगा.
पता चलेगा ब्रह्म,ब्रह्मात्मक ही नहीं है.
‘वहम ब्रह्म’ का करना विवेचना फालतू है.
भयग्रस्त हूँ पर,आदिसूत्र प्रश्नात्मक नहीं है.
राजनीति की नैतिकता तवे पर सिंकती रोटी।
जलेगी,पकेगी जो हो पर,खाद्यात्मक नहीं है।
कितने! सत्र सभाएं गौर करने मेरे हालात पर।
बहस बहुत है किन्तु कुछ विवेचनात्म्क नहीं है।
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