विरोधाभाष
आपके हमारे सबके आसपास,
समझ के परे हैं जीवन के विरोधाभाष.
जहाँ अभिव्यक्ति आवश्यक है वहाँ चुपी साध जाना,
मौन की जगह बडबडाना.
ख्याली दुनिया में नायकी का भूत सवार,
आँखों के सामने होते रहते हैं अत्याचार.
बोध क्षमता का यों गूंगा बहरा होना,
दूसरे के दर्द में एक आंसू भी ना रोना.
जंगल में भगदड़ है, कहते हैं कोई मानव आया है,
लोक विजय की चाह, विश्वास जानवरों का भी नहीं जीत पाया है.
अपने आप से ही छल,
लिए फिरते हैं दूसरों की समस्याओं का हल.
अपनी समस्याओं से पलायन,
दूसरों पर अकर्मण्यता का दोषारोपण.
जहाँ जागरूकता चाहिए वहां कुम्भकरण की नींद में सोते हैं,
हर चौराहे से आँख मूँद निकल जाते हैं जहां दिन दहाड़े द्रौपदी के चीर हरण होते हैं.
समझ से परे है यह विरोधाभासों से भरा जीवन,
आखिर क्यों किया जाता है दोगली जिंदगी का पोषण.
अपना कद ऊँचा करने के लिए दूसरों के पर कतरना,
स्वार्थ सिद्धि के लिए पाताल की गहराइयों में उतरना.