‘ विरोधरस ‘—21. || ‘विरोध’ के रूप || +रमेशराज
1.अभिधात्मक विरोध-
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बिना किसी लाग-लपेट के सपाट तरीके से विरोध के स्वरों को भाषा के माध्यम से व्यक्त करना इस श्रेणी के अन्तर्गत आता है। यथा-
नाम धर्म का लेकर लाशें ‘राजकुमार’ न और बिछें
-राजकुमार मिश्र, तेवरीपक्ष अप्रैल-सिंत.-08,पृ.16
2-लक्षणात्मक विरोध-
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काव्य में किसी समूह, समाज या व्यक्ति के लक्षणों के माध्यम से विरोध के स्वरूप को प्रकट करना लक्षणात्मक विरोध के अन्तर्गत आता है-
अब ये सर ‘बेजार’ का उनके मुकाबिल है उठा,
जिनके हाथों में सियासत की खुली शमशीर है।
दर्शन ‘बेजार’, तेवरीपक्ष, जन.-मार्च-08 पृ.2
उपरोक्त पंक्तियों में ‘सियासत की शमशीर’ लिये हुए हाथों के सामने’ अत्याचार के शिकार व्यक्ति का ‘सर को उठाना’ इस लक्षण को प्रकट करता है कि अत्याचारी के अत्याचार को अब सहन नहीं किया जायेगा।
3-व्यंजत्मक विरोध-
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किसी बात को जब संकेतों के माध्यम से कहा जाये, या शब्द जब अपने मूल अर्थ को त्याग कर, एक नये अर्थ में ध्वनित हों तो वहां व्यंजना शक्ति का प्रयोग माना जाता है। ‘विरोध’ अपने व्यंजनात्मक रूप में किस प्रकार प्रकट होता है, उदाहरण देखिए-
‘सुर्ख फूलों में बारूद बिछाते क्यूं हो,
घोलना है फजा में तो रंग घोलिये साहिब।
-कैलाश पचौरी, तेवरीपक्ष, परिचर्चा अंक-1,पृष्ठ 28
उक्त पंक्तियों में ‘सुर्ख फूलों’ का मूल अर्थ लुप्त होकर एकता, अमर चैन, भाईचारे का नया अर्थ ध्वनित करता है तथा ‘बारूद’ शब्द ‘घृणा, बेर, द्वेष, हिंसा के अर्थ में ओजस होता है और सम्पूर्ण पहली पंक्ति का नया अर्थ-‘देश की अमन-चैन के साथ जीती जनता के बीच आतंकवादी गतिविधियों का विरोध करना’ हो जाता है।
4-व्यंग्यात्मक विरोध-
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कुव्यवस्था, अनीति, अत्याचार का विरेाध् व्यंजना के माध्यम से चोट करते हुए होता है तो इस विरोध का रूप व्यंग्यात्मक होता है। यथा-
राह हजारों खुल जाएंगी, कोई-सा दल थाम भतीजे।
देश लूटना है मंत्री बन, फिर करना आराम भतीजे।
-खालिद हुसैन सिद्दीकी, तेवरीपक्ष जन.-मार्च-08,पृ.9
या
जो भी करे लांछित तुझको, दोष उसी पर मढ़ जा प्यारे।
डॉ. संतकुमार टंडन ‘रसिक’, तेवरीपक्ष अ.-सि. 08, पृ.21
5-प्रतीकात्मक विरोध-
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जब उपमेय ही उपमान के सम्पूर्ण लक्षणों को उभारकर उपमान के स्थान पर प्रस्तुत होकर ‘विरोध’ को ध्वनित करने लगे तो ऐसे विरोध का रूप प्रतीकात्मक होता है-
दंगे में मारे गये, हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख,
केसरिया बोला सखे-केवल हिन्दू लिक्ख।
जितेन्द्र जौहर, तेवरीपक्ष, जन.-मार्च-08, पृ. 10
6-भावनात्मक विरोध-
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शब्दों के माध्यम से विरोध स्वरूप जब आश्रय की भावनात्मक दशा प्रकट हो-
जिस्म जिसमें हो न शोलों की इबारत
जुल्म से कर पायेगा वह क्या बगावत।
-दर्शन बेजार, ललित लालिमा, ज.-जू.-03, पृ.04
7-वैचारिक विरोध-
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एक निश्चित विचारधारा के तहत योजनाबद्ध तरीके से किया गया विरोध वैचारिक होता है व उसकी रचनात्मकता भी असंदिग्ध होती है-
हम तो हैं बाती, दीये की आग से नाता पुराना,
रोशनी बढ़ जायेगी यह सर अगर कट जायेगा।
-डॉ. जे.पी. गंगवार, निर्झर-93-14, पृ. 45
8-चिन्तात्मक विरोध-
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डाल-डाल पर जुट गयी अब गिद्धों की भीड़
कहां बसेरा ले बया, कहां बनाये नीड़?
-रामानुज त्रिपाठी, तेवरीपक्ष वर्ष-24, अंक-1, पृ.14
9-तीव्र विरोध-
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‘मिश्र’ क्रांति आये समाज में,
भले लहू की हों बरसातें।
-राजकुमार मिश्र, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08, पृ.20
10-विश्लेषणात्मक विरोध-
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देखलो यारो मन्दिर-मस्जिद,
बारूदी खान हुये दंगों में।
-योगेन्द्र शर्मा, कबीर जिन्दा है, पृ.67
11-क्षुब्धात्मक विरोध-
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हाल मत पूछा जमाने का ‘खयाल’
सच को सच कहने की रिश्वत दी गयी।
-खयाल खन्ना, तेवरीपक्ष अ.-सि.08, पृ.1
12-रचनात्मक विरोध-
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उठ रहा है धर्मग्रन्थों से धुंआ ,
आइये हम फिर गढ़ें अक्षर नये।
-श्रीराम शुक्ला ‘राम’, तेवरीपक्ष परिचर्चा अंक-1
13-खण्डनात्मक विरोध-
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मानते हैं शक्ति-स्तुति धर्म है,
धूर्त्त को पर देवता कैसे कहें?
-दर्शन बेजार, तेवरीपक्ष अप्रैल-जून-81, पृ.24
14-परिवर्तनात्मक विरोध-
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होली खूं से खैलौ भइया
बनि क्रांति-इतिहास रचइया
बदलो भारत की तस्वीर,
समय आजादी कौ आयौ।
-लोककवि रामचरन गुप्त, तेवरीपक्ष जन-दिस.-97, पृ.07
15-उपदेशात्मक विरोध-
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नौनिहालों में भरो मत मजहबी नफरत कभी,
एकता के वास्ते लालो-गुहर पैदा करो।
-रसूल अहमद सागर, ललित लालिमा, जन-मार्च-04
16-रागात्मक विरोध-
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मैं समन्दर की भला क्यों पैरवी करने लगा,
एक पोखर से भी पूछो, उसका मैं हमराज हूं।
डाॅ. शिवशंकर मैथिल, निर्झर-93-94, पृ.47
17-संशयात्मक विरोध-
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अंधकार गर्जन करे, राष्ट्र बहाये नीर,
राजाजी के हाथ में लकड़ी की शमशीर।
-अशोक अंजुम, ललित लालिमा, जन.जून-03, पृ.23
18-एकात्मक विरोध-
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कहते हैं कि अकेला चला भाड़ नहीं फोड़ सकता। लेकिन अकेला चना [मनुष्य] यह भी उम्मीद लगाये रहता है कि आज नहीं तो कल हम एक से अनेक होंगे। कुव्यवस्था के विरोध में तनी हुई एक मुट्ठी का साथ कल अनेक मुटिठ्यां देंगी-
आज नहीं तो कल विरोध हर अत्याचारी का होगा,
अब तो मन में बांधे यह विश्वास खड़ा है ‘होरीराम’।
-सुरेश त्रस्त, कबीर जिंदा है, पृ.5
19-सामूहिक विरोध-
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एक जैसी यातनाओं, अत्याचारों, त्रासदियों को जब एक समाज या वर्ग झेलता है तो शोषक और बर्बर वर्ग के प्रति उसके विरोध के स्वर भी एक जैसे हो जाते हैं-
आंख अंगारे उगलना चाहती हैं,
भूख अधरों पर मचलना चाहती हैं।
शीशमहलो! बेखबर अब तुम न सोओ,
गिट्टियां तुम पर उछलना चाहती हैं।
-जयमुरारी सक्सेना ‘अजेय’ निर्झर-93-94, पृ.46
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630