‘ विरोधरस ‘—2. [ काव्य की नूतन विधा तेवरी में विरोधरस ] +रमेशराज
काव्य की नूतन विधा ‘तेवरी’ दलित, शोषित, पीडि़त, अपमानित, प्रताडि़त, बलत्कृत, आहत, उत्कोचित, असहाय, निर्बल और निरुपाय मानव की उन सारी मनः स्थितियों की अभिव्यक्ति है जो क्षोभ, तिलमिलाहट, बौखलाहट, झुंझलाहट, बेचैनी, व्यग्रता, छटपटाहट, अपमान, तिरस्कार से भरी हुई है। जिसमें स्थायी भाव आक्रोश है और आताताई अत्याचारी, अनाचारी, व्यभिचारी, बर्बर, निष्ठुर, अहंकारी, छलिया, मक्कार, धूर्त्त और अपस्वार्थी वर्ग के प्रति रस के रूप में सघन होता विरोध है।
कवि के रूप में एक तेवरीकार भी कवि होने से पूर्व इस समाज का एक हिस्सा है। इस कारण वह भी सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं का शिकार न हुआ हो या न होता हो, ऐसा समझना भारी भूल होगी। इसलिए उसका गान [तेवरियां] आह, कराह, अपमान का व्याख्यान न हों, ऐसा कैसे हो सकता है।
कवि के आत्म [रागात्मक-चेतना] का विस्तार जब समूचे संसार की सत्योन्मुखी संवेदना बनकर उभरता है, तभी वह कविता की प्रामणिकता की शर्त को पूरा करता है। एक तेवरीकार का आत्म उस समूचे लोक का आत्म होता है, जिसमें नैतिकता, ईमानदारी और लोकसापेक्ष मूल्यवत्ता, भोलेपन और निर्मलता के साथ वास करती है।
एक तेवरीकार को हर अनीति इस हद तक दुःखी, खिन्न, क्षुब्ध, त्रस्त और उदास करती है कि जब तक वह उसे अभिव्यक्त नहीं कर लेता, वह बेचैन रहता है। अपनी बेचैनी को दूर करने के लिए तेवरीकार कहता है-
आदमी की हर कहानी दुःखभरी लिखनी पड़ी,
बात कहनी थी अतः खोटी-खरी लिखनी पड़ी।
जब ग़ज़ल से पौंछ पाया मैं न आंसू की व्यथा,
तब मुझे बेज़ार होकर तेवरी लिखनी पड़ी।|
[दर्शन बेज़ार,‘देश खण्डित हो न जाए’, पृ. 17 ]
पीडि़त, दलित और शोषित वर्ग की व्यथा ‘तेवरी’ के सृजन का कारण इसलिए बनती है ताकि हर सामाजिक व्याधि से मुक्त हुआ जा सके। शोषक, बर्बर और आतातायी वर्ग के प्रति ‘तेवरी’ को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके। यह तभी सम्भव है जबकि एक सामाजिक के रूप में पाठक या श्रोता द्वारा तेवरीकार के इस मंतव्य तक पहुंचा जा सके।
तेवरी, सामाजिकों को किस प्रकार और कैसी रसानुभूति कराती है, इसे समझने के लिए तेवरी में अन्तर्निहित स्थायी भाव के रूप में आक्रोश तक पहुंचने की प्रक्रिया को समझना आवश्यक है जो विरोध-रस की रसानुभूति कराती है।
‘विरोध’ इस जगत में असंतुलन, अराजकता फैलाने वाले उस वर्ग के कुकृत्यों से उत्पन्न होता है जिसके थोथे दम्भ और अहंकार के सामने ये संसार क्रन्दन और चीत्कार कर रहा है। संसार का यह शत्रुवर्ग धूर्त और मक्कार होने के साथ-साथ सबल भी है और अपनी सत्ता को कायम रखने में सफल भी है। इसी के अनाचार और अताचार से सामाजिकों में विरोध उत्पन्न होता है |
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ‘ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001