विरह-१
मेरे बिस्तर के उस हिस्से में
जहां तेरा बसेरा था
अब वहां बिखरे पड़े हैं
तेरे ख्वाब
मैंने डाल दी
अपनी तन्हाई की चादर
इस इजाजत के साथ
कि जा बांट ले उनसे
अपने गिले शिक़वे
जो मुझसे कहने में
हिचकिचाती है
अब मैं सुकून से सुनता हूँ
बंद कमरे में हवा का शोर
और गुजर जाने के बाद एक
खामोशी
भावहीन पल
सरकते जाते है
अपनी बेतरतीब रफ्तार में
अचानक दो नन्हे से ख्वाब
दौड़कर आते हैं
एक साथ
दिनभर की शरारत का
लेखा जोखा देने
दोनों की जिद पहले
वो कहेगा
एक को चुप कराऊँ
तो रूठ कर बैठ जाता है
जाके कोने में
बहला कर किसी
तरह सुनता हूँ
दोनों की बातें
और वो चल पड़े
खिलखिलाकर
अपनी अपनी जीत की
खुशी में
एक दूसरे का मुँह
चिढ़ाते हुए
निपट कर उनसे
जो डाली नजर
तेरे ख्वाबों पर
वो बातों में मशगूल थे
मेरी तन्हाई से
नकारकर मौजूदगी
मेरी
मुँह फेर कर मुस्कुराता हुआ
सुनता हूँ
सुकून से
बंद कमरे में हवा का शोर