विरह में लिखा मोहबब्त का ख़त
आज उठा कर कलम कुछ लिखता हूँ
सजनी से दूर परदेशी पिया के विरह का ख़त लिखता हूँ,
सुनो सजनी तुम्हारे बिन अधूरा सा लगता सब यहाँ
नहीं लगता है मन तुम्हारे जैसी यहाँ बात कहा
घोर-घनेरी रातों में याद आता है तेरी बाहों का आलिंगन
जैसे भोर में दिनकर का उद्दीपन,
अक्सर याद आती है तेरी पायल की छन-छन
मन विचलित हो जाता है देह करती है दमन
यादें ले जाती अगाध प्रेम में और हो जाता है सूर्यास्त सनम
सांझ पंछियों को घरौंदे कि तरफ लौटता देख कर
तुझे पास ना पाकर परदेश में सजनी रोया फ़िर मै फुट-फुटकर,
सुनो सजनी सिख गया हूँ मै अब रोटी गोल बनाना
पर आया नहीं तेरी तरह सब्जी में प्रेम का छौंक लगाना
यूँ तो भर लेता हूँ मै पेट यहां जैसे-तैसे
पर नहीं ला पाता खाने में प्यार कि मिठास तेरे जैसे,
कैसे बताएं सजनी क्या-क्या मैंने यहाँ सहा
कैसे तेरे बिन परदेश में मै रहा
पैसे कमाना मजबूरी है, मेरा शरीर यहाँ आत्मा तेरे पास तेरी धुरी है
जल्द मिलन होगा अपने दिल को समझाना कुछ दिन की बस ये दूरी है,
चलो सजनी अब ख़त बंद करता हूँ, लिखते समय ख़त भी हमारा रोया है
चाँद की मानिंद सितारों में एक परदेशी तन्हा खोया है
सजनी कितने परदेशी विरह की स्याह रातों में उठ-उठ कर सोएं है ।।
______संदीप गौड़ राजपूत
जिला – महेंद्रगढ़ हरियाणा
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