विरही
मैं अक्सर झाँका करूँ, घने बादलों बीच।
दूर धरा से क्यों खड़े, बंजर मन दो सींच।।
एक आँख आँसू भरे, दूजे में है ख्वाब।
सागर हूँ ठहरा हुआ, दर्द भरा सैलाब।।
तुम से लम्बी दूरियाँ, लेगी मेरी प्राण।
अब घर आ जाओ सनम, बनो नहीं पाषाण।।
छोड़ अटरिया पर गया, सूरज मधुरिम शाम।
शीतल मंद पवन बहे, लेकर तेरा नाम।।
ऐ मेरे हमदम सुनो, मेरी तड़प पुकार।
तरसे दर्शन को नयन, तुझ से करूँ गुहार।।
देख गहन काली घटा, मन में उठती हूक।
घन गरजे संग बिजुरी, करो नहीं अब चूक।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली