विपदा की घड़ी
विपदा की घड़ी
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कभी कुछ थीं खुशियां घरों में हमारे,
जीये जा रहे थे उसी के सहारे।
विपदा ये कैसी प्रभु आज आई,
प्रकृति ने कैसी कयामत ढहाई।
नहीं दाना अन्न का घर में हमारे,
बर्तन भी बिखरे पड़े आज द्वारे।
माँ आज शन्न है अश्रु भी सूखे,
सोचे क्या खायेंगे बच्चे वो भूखे।
एकांकी जीवन मुश्किल है जीना,
फटी भाग्य का खुद से ही सीना।
जिनसे थी खुशियां कहाँ हैं वो सारे,
उजड़े पड़े अब घरौंदे हमारे।
अंबर भी सुना उदासी है छाई,
हँसी खो गई, हो गई है पराई।
बृक्ष भी खड़े पर निशब्दता लिए है,
लगता है मौन व्रत धारण किये हैं।
प्रभु फिर से अपनी प्रभुताई दिखाओ,
हमें आज अपनो से फिर से मिलाओ।
उजड़ा है जीवन प्रभु जी सुधारो,
विपत्त की घडी भगवन आके उबारो।।
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✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
पूर्णतया स्वरचित, स्वप्रमाणित, अप्रकाशित
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार..८४५४५५