विध्वंस रोकने को !
बीति रजनी
तम से कोसों दूर
दीप्त ,
एक स्वच्छ
सुदृढ , सुह्रद
उदय नवल प्रभात
धरा पर आती-
स्वर्णिम रश्मियाँ
तप-त्याग
प्रखर-पुँज की
अनंत शक्ति को
करती समाहित-
सौम्यता, सारगर्भित तथ्य को परखती !
विभा की रश्मियाँ
अनंत ब्रह्मांड से
आती –
दीखाती सत्य – संधान को ;
विघटित संसाधन के भयावह रूप को !
क्रूर ! निस्तेज !
नहीं ! नहीं!
तप-श्रेष्ठ सुगंधित पुण्य अवनी को,
सस्य-मृदुता, कोमलता ,
पुर्णता भरने
मानवता के प्रतिमूर्त्त रूप को
करने साकार
विघटन, पलायन के भयावह
विध्वंस रोकने को !
—
✍️ कवि आलोक पाण्डेय