#विधना तेरे पूतकपूत
~ जगजगती की ✍️
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◆ #विधना तेरे पूतकपूत ◆
अगले पल में क्या होगा? कल क्या होगा अथवा भविष्य में क्या होनेवाला है? ऐसी जिज्ञासा शांत करने के लिए ही ज्योतिषविद्या का सर्जन हुआ। ऐसे भी उत्साहीजन हुए जिन्होंने संभावित में परिवर्तन की विधि खोज ली। घटरही की धारा का प्रवाह रोक लिया अथवा उसका मुख मोड़ दिया। यथा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र का मुख मोड़ देने पर उसका प्रभाव निष्फल कर दिया था। तभी परीक्षित का धरावतरण संभव हो पाया।
ऐसे में कुछ ज्योतिषियों को लोग भगवान की तरह मानसम्मान देने लगे। और उन मूढ़जनों ने उसे स्वीकार भी लिया। वे भूल गए कि उनकी कुछ सीमाएं हैं। वे नहीं जान पाए कि वे मात्र तुच्छ परिवर्तन की योग्यता अर्जित कर पाए हैं। बस, और कुछ नहीं। और जब विधिमाता अपने सकल रूप में प्रकट हुईं तब उनकी समस्त योग्यता धरी रह गई।
सच तो यह था और है कि यदि ज्योतिषी द्वारा कर्ता होने का दंभ सच होता तो इस धरती पर सर्वाधिक सुखी व्यक्ति वही होता।
ऐसे भी ज्योतिष के ज्ञाता हुए जो अपने को भगवान के तुल्य ही मानने लगे। आज पहले उन्हीं की बात करते हैं।
गऊशाला के सामने की सड़क पर कुछ पग चलने के उपरांत ही ढलान आरंभ हो जाती थी जो कि दाईं ओर मुड़ते हुए जब सीधी होती तो उसके दाईं तरफ पहले हरबंसपुरा और फिर ढोक मुहल्ला का पिछवाड़ा समाप्त होते ही श्मशानघाट दिखने लगता था। सीधी हुई सड़क के बाईं ओर मंदिर परिसर के भीतर ही सीमित स्थान पर गुरुद्वारा, बच्चों की पाठशाला और उसके आगे बुड्ढा नाला के किनारे दूर तक विस्तृत घाट। तब बुड्ढा नाला के पानी में न केवल नहाया जाता था अपितु उसका पानी पिया भी जाता था।
आइए, अब वहीं लौट चलें जहां से सड़क की ढलान आरंभ हुई थी। वहां से बाईं तरफ मुड़ने पर गऊशाला की दीवार के पीछे दूर तक कूड़े-कचरे के ढेर व उनके आगे ऊबड़खाबड़-सा कच्चा-पक्का रास्ता जो कि दरेसी की ओर निकल जाता था। यद्यपि उस रास्ते से शिवपुरी अथवा दरेसी मैदान की दूरी कम हो जाती थी परंतु, उस गंदगी में पाँव कौन धरे!
उसी रास्ते के दाईं ओर झाड़झंखाड़ और खड्डों के आगे बुड्ढा नाला बहता था। यदि कोई साहस करके उधर को निकल जाता तो देखता कि बाईं ओर जितने भवन हैं उनकी केवल खिड़कियां इधर को खुलती हैं। लेकिन, द्वार किसी का भी उत्तर दिशा की ओर नहीं है। तीन-चार स्थान पर ऊपर की ओर जाती चौड़ी विस्तृत सीढ़ियां थीं जिनसे नीचे की ओर संभवतया कोई नहीं उतरता था।
चलिए फिर वहीं लौट चलें जहां गऊशाला की उत्तरी दीवार के साथ कूड़े-कचरे के ढेर लगे थे। एक दिन उसी दीवार के साथ सटी हुई तीन-चार दुकानें बन गई। कूड़े के ढेर को यद्यपि पश्चिम की ओर धकेल दिया गया था परंतु, बुड्ढे नाले से पहले के झाड़झंखाड़ व खड्ढे-गड्ढे वहीं पर थे।
आश्चर्य नहीं, घोर आश्चर्य अभी शेष था। एक दिन पहली दुकान के बाहर नामपट्ट लगा था, #पंडित_भगवतीचरण_वाजपेयी !
विश्वास नहीं हुआ। आगे बढ़कर देखा तो जिसे कहते हैं “आँखें फटी रह गईं”। सच में ही पंडित भगवतीचरण वाजपेयी जी बैठे थे।
पंडित भगवतीचरण वाजपेयी जी का निवासस्थान उस समय नगर के बीचोंबीच वहां पर हुआ करता था जिसे तब नगर की हृदयस्थली कहा जा सकता था। जाने कितने बरस बीत गए पंडित जी को वहां रहते हुए। जनसाधारण किसी को पता बताते हुए “किशोरमार्ग” कहने की अपेक्षा “चौड़ा बाजार से खुशीराम हलवाई के साथ वाली गली से पंडित भगवतीचरण वाजपेयी जी की ओर” बताने लगे।
एक दिन उस भवन के स्वामी ने पंडित जी से मकान छोड़ने को कह दिया कि अब हमें यह स्थान निजी आवश्यकता के लिए चाहिए। आप कहीं और स्थानांतरित हो जाएं। पंडित जी ने स्पष्ट मना कर दिया। और तब, जब भवनस्वामी ने अदालत में गुहार लगायी तब, पंडित जी बहुत हंसे। खुलकर हंसे, “ज्योतिष विद्या के बल पर मैंने अदालतों के निर्णय पलटवा दिए, भूस्वामियों के भवन किराएदारों के नाम लिखवा दिए, मुझसे कौन मकान खाली करवाएगा”?
और एक दिन, विधनादेवी आईं और पंडित जी के कान में धीमे-से कह गईं, “भवन खाली करो पुत्र! अदालत में तुम हार चुके। जो सम्मान शेष रहा है उसे बचा लो”।
और, भविष्यद्रष्टा पंडित भगवतीचरण वाजपेयी जी गऊशाला की उत्तरी दीवार के साथ सटी हुई उस दुकान में जा बैठे जहां से कूड़े का ढेर तो परे धकेल दिया गया था परंतु, उसके अवशेष जहां-तहां बिखरे ही रहे।
अभी बात पूरी नहीं हुई।
ऐसे ज्योतिर्विद भी हुए जिन्हें जनमन द्वारा ईश्वरतुल्य माना गया। जिन्होंने विद्या का भी मानसम्मान बढ़ाया और अपना भी।
पंडित नारायणदत्त श्रीमाली जब अदालत के समक्ष उपस्थित हुए तो उनके ललाट पर ढूंढे भी सलवट न मिलती थी। वे उच्चस्वर से बोले, “ग्रह अपनी राह चल रहे हैं चलते रहेंगे। मैं नारायणदत्त श्रीमाली भी अपनी राह भटका नहीं हूं और न ऐसा होगा। न्यायाधीश महोदय, आप अपना कर्त्तव्य कीजिए। मैं वही पंडित नारायणदत्त श्रीमाली रहूँगा जिनके पाँव के अंगूठे को उस दिन देश की प्रधानमंत्री चूमकर गई थीं”।
और एक बात।
हम और आप आज ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ दो दिन ताप न उतरे तो लोग डॉक्टर बदल देते हैं। ऐसे विषम समय में ज्योतिष विद्या के कुछ ऐसे भी ज्ञाता हुए हैं जो आयुपर्यन्त अपने को विद्यार्थी ही मानते रहे। न अपने को पुजवाया न इच्छित धन ही पा सके। जिनके पास अपनी समस्या लेकर आने वाले दशकों बीत जाने पर भी उनसे जुड़े ही रहे। किंतु, इन कृतघ्नों ने किसी दूजे को न तो ज्योतिषी के घर का पता बताया और न ही यह विचार किया कि जीवित रहने के लिए वायु व जल के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ अपेक्षित हुआ करता है।
हे माँ शारदे, मुझे सद्बुद्धि का दान देना!
(विशेषकथन : कुछ नाम परिवर्तित कर दिए गए हैं कि किसी को असुविधा न हो।)
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२