विदा ‘अटल’ जी
दुनिया में ऐसा क्या देखा जो चलते चलते हार गए
तुम बंधन सारे तोड़ गए और छोड़ के यह संसार गए
जीवन में न कालिक थी आचरण कहाँ कब मैला था
तुम राजनीति के धर्म गुरू यह तेज जहां में फैला था
न तन बूढ़ा , न मन बूढ़ा और स्वप्न कहाँ कब बूढ़े थे
कैसी आज़ादी होती है यह सब प्रश्न तुम्हीं ने ढूढ़े थे
ये भी तो तुम्हारा सपना था कि विश्व विजेता हो भारत
जल , धरती , अंबर जीते हर बार विजेता हो भारत।।