विडम्बना
ममता मरी
समता मरी
अतृप्ति जीवित ।
मानवी संवेदनाएँ
चुक गयीं
होकर व्यथित ।
घर छोड़ती
हद तोड़ती
गृह लक्ष्मी
विश्वास को ठेंगा बताती
बन रही है
कुलक्षणी ।
पाश्चात्य दामन
में रमा मन
अविवेकी नयी पीढ़ी
सभ्यता के नाम पर
खेलती है खेल
साँप सीढी ।