‘विडम्बना’
पाठ ऐसा, पढ़ा दिया उसने,
जैसे, सब कुछ सिखा दिया उसने।
वेदना भी, नहीं रही अब तो,
घाव प्रतिदिन, नया दिया उसने।
अश्रु भी, चुक गए हैं अब मेरे,
रोज़ इतना, रुला दिया उसने।
याद आख़िर मैं दिलाता क्या-क्या,
नाम तक था, भुला दिया उसने।
मेरा हर रँग, पड़ गया फीका,
रँग अपना, चढ़ा दिया उसने।
कह न पाया मैं, बात भी अपनी,
ऐसा क़िस्सा, सुना दिया उसने।
मिट गए थे, सभी भरम मेरे,
ला के दर्पण, दिखा दिया उसने।
जब न “आशा” भी, बची दर्शन की,
मुख से पर्दा, हटा दिया उसने..!
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