“विडंबना”
“आजाद हुआ जब भारत अपना,
तब थी आधी रात,
बरसो बीते आजादी को,
पर नही हुआ प्रभात,
गिने चुने कुछ लोगो ने समझी आजादी की धार,
बाकी जनता तो झेल रही बढ़ती महँगाई की मार,
चोर,लुटेरे देखो सारे हो गये मालामाल,
ईमानदार परिश्रम करके भी रह गया कंगाल,
जो उत्पादक को लूटे ,उपभोक्ता को जाए चूस,
ऐसा पूंजीवाद तो होता है मनहूस,
दस प्रतिशत लेकर बैठ गये धन का नब्बे भाग,
भ्रम में हम सब उलझ गये ,समझें हैं अब जाग,
श्रमिक,किसान सब लड़ने को हैं बैठे तैयार,
गरीबी में सब खो चुके दर्द की है ललकार,
राजनीति तो पेशा बन गयी,झूठ बना हथियार,
वादों के पुल पर टहलाती आती जाती सरकार,
विनयशील भाषा कर मंचों से ,
प्रेम,दया की करते बात,
सामने चिकनी चुपड़ी बस,
पीछे यही करते है घात,
योजनाए फ़ाइलों से चलकर,
फ़ाइलों तक रह जाती हैं,
सौ में केवल बीस ही मूर्त रूप में आती हैं,
उसमें भी दस ही ऐसी ,
जनता जिनका लाभ उठाती है,
बँटवारों में बँटते-बँटते,
ये थोड़ी सी रह जाती हैं,
धर्मों के बातों से सबकी नाव पहुँचती तीर,
लाखों जनता भले गरीब लेकिन ये देश अमीर,
अंधविश्वास को देखकर कह गये संत कबीर,
भक्त यहाँ चरणामृत पीते,पंडा खाते खीर “