विज्ञापन
नित नये विज्ञापन –
उम्मीदों से लबरेज –
शब्दों के जादू से
दर्शकों को रिझाते ,
उत्पाद की खूबियाँ गिनाते ,
मन को ललचाते ;
तकनीक के रास्ते
दबे पांव ,
प्रवेश कर रहे हैं
युवाओं के दिल-ओ-दिमाग में ।
ये विज्ञापन –
बाजारवाद के पोषक –
निर्माताओं की कपोल कल्पनाएँ ?
या सुनियोजित साजिशें ?
विचारणीय प्रश्न है !
(मोहिनी तिवारी)