” विचित्र उत्सव “
” विचित्र उत्सव ”
सुबह आई थी मैं शिवोहम सामोद में
शाम को तो आज पार्टी है संभू बोला
पार्टी सुनकर रानू, रोमी हुए लालायित
तराना राग सजेगा राज ने था मुंह खोला,
लालिमा अभी छाई ही तो थी शाम की
सूरज राजा भी अस्त होने को चले थे
मन ही मन उत्सुक हो चली थी मीनू भी
तैयारियों को अंतिम रूप वर्कर देने लगे थे,
हल्ला गुल्ला होगा जरूर सोचा था पूनिया ने
रंग बिरंगी मुलायम खाट थी इंतजार में खड़ी
शैन शैन वाहनों का आगमन हुआ तब शुरू
अनेकों कूलर संग हवा सबके चेहरों पर पड़ी,
ना कोई उत्साह, ना ही कोई दिखी उत्सुकता
विचित्र उत्सव पहली बार आज मैंने कैसा देखा ?
खाट बेचारी अब आलस में पड़ी मारें उबासी
संगीत का बेसुरे सुरों ने गला फिर था घोंटा,
मुस्कान नहीं चेहरों पर, नयनों में नहीं ताजगी
ये कैसी पार्टी, कैसा ये जश्न पूनिया ने सोचा
मोबाइल में व्यस्त तो घर पर भी रह सकते थे
जबरदस्ती क्यों बेबस दिन का भी कलेजा नोचा।