विकास
कभी-कभी मेरे मन में एक सवाल उठता है
मच्छरों में क्यों नहीं बवाल उठता है
काश! ये भी हमारी तरह लड़ते
छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में झगड़ते
एक मच्छर दूसरे मच्छर के खून का प्यासा हो जाता
तो हमको कम से कम इतना दिलासा हो जाता
कि
ये दुष्ट अपने भाइयों का खून पियेंगे
और हम बेफिक्र होकर चैन से जियेंगे
पर
यहाँ तो कुछ और ही बात है
मानव की ज़िन्दगी एक अँधेरी रात है
जहाँ
चाँद और सूरज की रौशनी भी कम है
बम कारतूस लाठी भाले में ही दम है
आदमी, आदमी से जलता है
खून पी जाने को मचलता है
नहीं करता है मोहब्बत कोई
सिर्फ झूठा फरेब चलता है
लोकतंत्र के नाम पर भीड़तंत्र हावी है
जिसकी सेटिंग हो जाए वह सबसे बड़ा मेधावी है
जहाँ सरकार बदलती हो हर महीने में
वहाँ जनता किसी नेता को क्या आदर देगी
पता नहीं था राजनीति की काली बस्ती
‘असीम’ देश के युवाओं को खंजर देगी
कुछ के पास समय नहीं है, कुछ समय गुजार रहे हैं
बापू की समाधि पर जूते-चप्पल उतार रहे हैं
इससे बड़ा सबूत क्या विकास का हो सकता है
पहले दुश्मन को मारते थे अब अपने भाइयों को मार रहे हैं।
✍🏻 शैलेन्द्र ‘असीम’