विकर्ण और कौरव सभा
हाँ! वह वीर कौरव था,
उसका अजब गौरव था,
था धृतराष्ट्र का वह सुत,
रक्त से वह पौरव था ।।1।।
थी सभा वीरो से भरी,
चुप थे सब पौरुषधारी,
करुण रूदन पांचाली करती,
धर्मराज ने बाजी हारी ।।2।।
सुयोधन का पाकर आदेश,
द्रोपदी को लाया पकड़ केश,
भीष्म द्रोण सब थे झुकाए शीश,
विकर्ण को आया बड़ा तैश ।।3।।
धर्म के पक्ष में हुआ खड़ा,
भ्राता दुर्योधन से वो अड़ा ,
बार बार उसको समझाया,
भ्राता उसका जिद पर पड़ा ।।4।।
चुप थे भीष्म द्रोण और कर्ण,
करता रहा प्रतिरोध विकर्ण,
धन्य धन्य गांधारी नन्दन,
कर दिया काज अपना पूर्ण ।।5।।
था नही वह वीर विशेष,
सभा में बचा न कोई शेष,
विकर्ण ताने सीना खड़ा,
भुलाकर आज सारा द्वेष ।।6।।
देखो! आया कैसा शासन,
नारी को लजाता दुःशासन,
राजा सुत मोह से जकड़ा,
शीश झुकाए बैठे स्वजन ।।7।।
जब होगा नारी अपमान,
मिट जाएगा यह जहान,
युगों युगों तक याद रहेगा,
काज यह कलंक समान ।।8।।
प्रतिशोध की यह ज्वाला,
धधक उठी बनाने निवाला,
भारत बन गया महाभारत,
घूँट घूँट है विष का प्याला,
।।।जेपीएल।।।