वार पीठ पर
सुख-सुविधा का वहम लपेटे
इस मशीन को ठेल रहे हम!
बॉलीवुड सा अभिनय करके
अंदर-अंदर मरे हुए।
पर्दा खींच रहा निर्देशक
हम हँसते पर डरे हुए।
पत्ते फेंट रहा जादूगर
आँख मूँदकर खेल रहे हम!
घनमूलों में उलझा जीवन
गिनती जितना सरल नहीं ।
पारा जैसा गाढ़ापन है
पानी जितना तरल नहीं।
हृदय थामकर के हाथों में
वार पीठ पर झेल रहे हम!
एक सेल में जीन्स खरीदी
पिज्जा बर्गर हुए पड़े।
कुर्सी पर बैठा अँधियारा
कोने में चुपचाप खड़े।
नए समय की चकाचौंध में
जबरन इसे धकेल रहे हम!
—©विवेक आस्तिक