’वागर्थ’ अप्रैल, 2018 अंक में ’नई सदी में युवाओं की कविता’ पर साक्षात्कार / MUSAFIR BAITHA
(1) नई सदी में युवाओं की कविता को आप किस दृष्टि से देखते हैं? आज की युवा कविता में पहले से क्या भिन्नता है?
उत्तर- समकालीन हिंदी कविता मुख्यतः गद्य फॉर्म में लिखी जाती है जिसमें केन्द्रीयता अतुकांत एवं गद्य कविता की है, अस्मितावादी काव्य लेखन धारा को छोड़ दें तो यहाँ भिन्नता की कोई स्पष्ट रेखा नजर नहीं आती. दलित, आदिवासी एवं स्त्री कवियों का एसर्शन जरूर नई परिघटना है. समसामयिक कविता की सामान्य अथवा गैरअस्मितावादी धारा में एक साथ तीन-चार पीढ़ियों के कवि रचनारत हैं, मगर इनकी कविताओं में ट्रीटमेंट में कोई पीढ़ीजन्य साफ़ अंतर देखने को भरसक ही मिलता है.
हाशिये की गति में लिखे जा रहे ग़ज़ल, गीत और नवगीत आदिकी बात करें तो उनमें पहले की प्यार की दैहिक और दार्शनिक-रूमानी अभिव्यक्ति के मुकाबले अभी इनमें दैनिक जीवन से नजदीक का नाता हो चला है. ग़ज़ल में विचारधारा का अटाया जाना तेज हुआ है. ग़ज़ल की यह दिशा दुष्यंत कुमार से चलकर दलित चेतना के सम्प्रेषण तक आ बढ़ी है. ग़ज़ल में दलित चेतना के निवेश के ख्याल से बी आर विप्लवी अगुआ एवं एकमात्र गज़लकार ठहरते हैं.
अलबत्ता, भाषा को बरतने के मामले में कहानी की तरह ही युवा कविता में पिछली पीढ़ी के मुकाबले हिंगलिश का प्रयोग तेज हुआ है.
(2) आज की कविता को बाज़ार ने कितना प्रभावित किया है ?
बाज़ार की मांग अथवा बाज़ार में खपत का ख्याल रखकर भी कविताएँ लिखी जा रही हैं एवं इसको लक्ष्य कर कविता तथा काव्य संकलनों के शीर्षक तक रखे जा रहे हैं. प्रेम और धर्म हमेशा से जीवन की नाभि बिंदु रहे हैं, शब्द-संसार में ऊंचे भाव बिके हैं, खासकर इनकी विवादजन्य अथवा जुगुप्सा जागृत करने योग्य प्रस्तुति काफी ‘सेलेबल’ है. बावजूद इसके, बाजार एवं कविता के भावक-उपभोक्ता हैं कि कविता से प्रभावित होने में हिचक रहे हैं! कविता के नाम पर फूहड़ हास्य व्यंग्य परक रचनाएँ गैर साहित्यक सभा-सम्मेलनों में ऊंचे दामों पार बिक रही हैं. ‘कोई पागल कहता है, कोई दीवाना कहता है…’ फेम के कु(कवि) कुमार विश्वास की बाजार में बरजोर मांग उदाहरण है.
(3) क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया ने आज की युवा कविता को एक नई दिशा और ज़मीन दी है ?
यह देखने में आ रहा है कि एक-डेढ़ दशक से प्रयोग में आया सोशल मीडिया एवं उसके फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाईट, स्मार्टफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर जैसे एजेंट और उपादान भी युवा कविता का विषय बन रहे हैं. यहाँ तक कि अपने आप को एकोमोडेट और इम्प्रोवाईज करने में सक्षम पिछली पीढ़ियों के कुछ वरिष्ठ कवियों की इधर की रचनाओं में भी यह अधुनातन संगत और संगति दिख रही है. आप देखेंगे कि विष्णु नगर, विष्णु खरे, आलोकधन्वा, मलखान सिंह, कँवल भारती, उदयप्रकाश, मदन कश्यप जैसे वरिष्ठ और साठ की उम्र के पार के कवि भी फेसबुक, ब्लॉग आदि पर सक्रिय हैं, युवा कवियों की उपस्थिति तो खैर, विपुल है ही. सोशल मीडिया ने हिंदी कविता को बेशक, नई जमीन दी है. कुछ युवा कवि तो फेसबुक के माध्यम से ही सामने आ रहे हैं. फेसबुक ऐसा मंच है जहाँ अपनी कविताओं को प्रस्तुत कर एक अदना सा अथवा अज्ञातकुलशील कवि भी किसी आसरा का मोहताज नहीं रह जाता. अनेक अच्छे व चर्चित कवि तो सोशल मीडिया की ही देन हैं. ब्लॉग भी एक ऐसा ही मगर अधिक सुनियोजित विस्तृत स्पेस वाला मंच है. इन मंचों पर पाठक भी तैयार मिलते हैं और इन पर लगाई गयीं रचनाओं पर उनकी त्वरित प्रतिक्रियाएं एवं समीक्षाएं भी मिल जाती हैं, बहस-बात भी हो जाती है. कई बार अखबार और पत्रिकाएँ फेसबुक और ब्लॉग-वेबसाईट से उठाकर भी कविताएं प्रकाशित कर देते हैं. अब तो विभिन्न लोगों की फेसबुक पर उपलब्ध रचनाओं में से चुनकर भी सामूहिक काव्य संकलन तैयार होने लगे हैं.
(4) नयी सदी में बड़ी संख्या में कवि अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, इसके क्या कारण हैं ?
दरअसल, कविता ऐसी रचना-विधा है जो सबसे आसान मानी गयी है. किसी भी भाषा, समाज से जुड़े साहित्य में अन्य सभी विधाओं के मुकाबले कविता की रचना बहुत बहुत ज्यादा हुई है. यानी कविता लिखना सबसे ज्यादा आसान माना गया है. चूँकि कविता होने न होने को लेकर कोई एकमत परिभाषा नहीं है, अतः हर रचनाकार कवि है. यानी, हर किसी की हर कविता कहीं न कहीं रचना के रूप में मान्य हो जाती है. दूसरी बात, कोई गुटबाजी, जुगाड़ और संपादकों को पटाने की कला में न भी माहिर हो तो पत्रिकाओं एवं अन्य अनेक प्लेटफॉर्म उपलब्ध होने के कारण उसकी रचनाओं के छपने का संकट नहीं है. गरज यह कि रचने का अवकाश और स्वीकार बढ़ा है अतः उत्साह व हौसला भी. काव्य संग्रह छपने का मामला भी लगभग वैसा ही है, आपकी काव्य प्रतिभा से भले ही कोई भी नामचीन संपादक-प्रकाशक प्रभावित न हो पर धुरफंद और फंड तो इनके यहाँ भी काम कर ही जाता है! यह भी कि सूचना के विस्फोट की तरह सोशल मीडिया के अवयवों का संग पाकर कविता का विस्फोट हुआ है.
(5) आज की कविता में लोक संवेदना का कितना विस्तार हुआ है ?
दरअसल इस प्रश्न का धरातल प्रथम प्रश्न से ही जुड़ता है. लोक में संवेदना के मुख्य स्वरूपों वेदना, सुखानुभूति एवं इतर भावों के आकार-प्रकार का समाज के जटिल होने के सापेक्ष विस्तार हुआ है, समय के साथ-साथ समाज में बहुत से नये परिप्रेक्ष्य जुड़े हैं, जीवन जटिल हुआ है अतः स्वभावतः संवेदना की सघनता, सूक्ष्मता के नवान्न बिन्दुओं का भी अंकन हुआ है. आइये इसे एक उदाहरण से समझते हैं. प्रेमकरण हमारे कविता समय में जरूरी दखल करते कवि हैं. उनकी एक कविता है ‘आरक्षण गली अति सांकरी’. यदि समाज में संवैधानिक आरक्षण नहीं होता, जात-पांत नहीं होती, इनके होने से मन से असहज बंटे हुए समाज होने के बावजूद इनके आरपार जाकर प्यार का सहज आदानप्रदान नहीं होता तो तद्विषयक संवेदनाओं के अंकन से ऐसी महान व महीन कविता का रचा जाना क्या संभव होता?
दलित, आदिवासी एवं स्त्री कविता के अस्मितावादी स्वर को भी इस कड़ी में रखा जा सकता है.
(6) युवा कविता में विचारधारा की क्या जगह है ?
मेरे जानते, युवा कविता में विचारधारा का निवेश बढ़ा है. सामाजिक स्थिति के उत्तरोत्तर विषम एवं गझिन होने के चलते कविता में प्रतिरोध, प्रतिकार व आक्रोश अभिव्यक्ति के पुट बढ़े हैं. अलबत्ता, अभी कविता की एक अलग उपधारा अस्मितावादी काव्य भी ट्रेंड कर रही है. दरअसल यह एकल धारा नहीं बल्कि तीन स्वतंत्र धाराएं हैं जो किन्हीं बिन्दुओं पर एक भी दिखती हैं. ये वंचना के स्वानुभूत के अंकन को संबोधित हैं.
अस्मितामूलक साहित्य में मुख्यतः दलित, स्त्री एवं आदिवासी चेतना का साहित्य आता है. कविता में जहाँ भी सपाटबयानी है, वर्णात्मकता है, गद्यात्मकता है वहां रचना प्रायः विचार प्रधान होती है. अस्मितावादी कविताएं प्रायः ऐसी ही हैं. खासकर, दलित साहित्य ने अपना अलग सौंदर्यशास्त्र बनाया है. हिंदी कविता के अतीत में जाएं तो छायावादी कविता के बाद प्रयोगवादी, प्रगतिवादी, अकविता, नई कविता आदि फौर्मों से गुजरती हुई समकालीन कविता के समसायिक दौर में कविता में सपाटबयानी और विचारधारा का संघनन बढ़ा है. यह समाज में विषमता एवं संश्लिष्टता के बढने के अनुपात में बढ़ा है.
(7) कविता को किस हद तक प्रतिरोध के सांस्कृतिक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और किस हद तक इसका लक्ष्य सौंदर्यबोध है ?
मेरे जानते, सौंदर्य कविता का एक अनिवार्य घटक है मगर, रचना में उसकी अवस्थिति की पहचान एवं मान का पैमाना एक नहीं है. ‘सुन्दरता देखने वाले की आँख में होती है’ – अंग्रेजी में इस आशय की एक कहावत है. यह कविता पर भी लागू है. और एक सौंदर्य श्रम का होता है, जो बात धनिकों के लिए, सामंती स्वाभाव के व्यक्तियों के लिए हेय हो सकती है वही संवेदनशील व्यक्ति के लिए प्रेय और सौंदर्यबोधक, और फिर इसका ठीक उलटा भी. निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ और मलखान सिंह की कविता ‘सुनो ब्राह्मण’ विपरीत धरातल की मगर ऊंचे सौन्दर्यबोध व प्रतिरोध के सांस्कृतिक औज़ार की जरूरी रचनाएं हैं. यहाँ ‘सुनो ब्राह्मण’ का प्रतिरोध का स्वर ‘लाउड’ है और सौन्दर्यबोध अपेक्षाकृत अंडरटोन, जबकि ‘तोड़ती पत्थर’ में विपरीत स्थिति है. कविता तो प्रतिरोध के सांस्कृतिक औजार के रूप में स्वतंत्रता प्राप्ति के राजनैतिक आंदोलनों में भी प्रयुक्त हुई है. हमारे पास बाजाब्ता राष्ट्रकवि अर्थात राष्ट्रवादी कवि रहे हैं, आजादी के बाद के सन 1974 के सत्ता परिवर्तन के आन्दोलन में भी कवियों ने भाग लिया, नुक्कड़, सड़क, चौक-चौराहों पर आन्दोलनकारियों के साथ अपनी रचनाओं का पाठ किया. आज प्रगतिशील नाटकों, नुक्कड़ नाटकों, प्रतिरोध मार्चों, जुलूसों में कविता का इस्तेमाल आम है.
(8) नई सदी की कविता का ईमानदार, प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन अभी बाकी है, इस संबंध में क्या संभव है ? यह किसकी व्यर्थता है कवि की या आलोचक की ?
‘ईमानदार, प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन’ – ये सभी सब्जेक्टिव धारणाएं हैं. अर्थात, ‘ईमानदार, प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन’ जैसा वास्तव में कुछ होता नहीं है. सो, नई सदी ही क्या, किसी भी काल की कविता का ईमानदार, प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन होना हमेशा शेष ही रहेगा! सबको पता है कि कबीर की रचनाओं को आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने कविता मानने से ही इनकार कर दिया था. मुक्तिबोध मरने के बाद अचानक आधुनिक कविता के बरगद कवियों में शामिल हो गए. बड़े बड़े कवि व आलोचक ने किसी को उठाया तो किसी को गिराया. राजनीति, पालन-पोषण परिवेश और शिक्षण-प्रशिक्षण हमें हमें एक मति का रहने नहीं देते. टटका आदिवासी कवि अनुज लुगुन की हैसियत समकालीन हिंदी कविता में उनका कोई काव्य संग्रह आने से पहले ही ईर्ष्य हो गयी. क्या कोई बताएगा कि प्रभूत दलित काव्य लेखन के बावजूद किसी दलित कवि की हैसियत अनुज लुगुन के पासंग में भी क्यों खड़ी नहीं हो पाई है? अनुज की आदिवासी अस्मितापरक रचनाओं में भी याचना एवं दयनीयता भरी वर्गीय खांचे की कविताई है जिससे किसी को कोई खतरा नहीं है. साफ़ है, दलित कविता, जो अम्बेडकरवादी बुनावट की काव्यधारा है, में जो ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद का सीधा विरोध है, खुला प्रतिकार है वह वामपंथ विरोध तक चला जाता है, और, यह मुख्यधारा पर कब्जा जमाए किसी भी धारा के आलोचकों एवं संपादकों को भरसक ही पचता है.
(9) समाज में कविता की उपयोगिता कितनी बची है ?
समाज में उपयोगिता तो हमेशा बनी और बची रहेगी. कविता ने अबतक जो यात्रा की है उसमें समय और समाज की जरूरत के हिसाब से ही तो तब्दीली आई है. अभिव्यक्ति का यह ऐसा फॉर्म है जो अपेक्षाकृत सरल जीवन के समय की सरल अभिव्यक्ति में शुरू होकर जटिल होते समाज में सूक्ष्म, लाक्षणिक और सांकेतिक होते जा रही है. ‘मा निषाद प्रतिष्ठाम…’ की जो कारूणिक अभिव्यक्ति कवि वाल्मीकि ने दी थी, प्रेमालाप रत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक के शिकारी द्वारा मारे जाने से जिस तरह विरही क्रौंच की विरह वेदना को शब्द दिए गये थे उस तरह से संवेदना की अभिव्यक्ति की जरूरत कब बची नहीं रहेगी?
हालाँकि विडम्बना यह है कि कविता की जरूरत में कविता में ठहराव अथवा ठहरी कविता की भी पूछ बनी हुई है. महाभारत, रामायण और रामचरितमानस जैसे मिथकीय कथानकों पर बने काव्य ग्रंथ ठहरे समाज के लिए धर्मग्रंथ हैं. ‘संस्कार’ चालित समाज के लिए जहाँ तुलसीदास, सूरदास, विद्यापति, निराला जैसे कवियों की आवश्यकता है वहीं संस्कार से पीड़ित-प्रताड़ित जनों को कबीरदास, रैदास, मलखान सिंह जैसे कवियों की जरूरत है.
कविता की उपयोगिता के दूसरे धरातल पर देखें तो कविता का अनेकानेक संलिष्ट मानवीय क्रियाकलापों तक निरंतर विस्तार हो रहा है. यह भी कि मनुष्य के बीच राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, पुचकार-दुत्कार, अत्याचार-प्रतिकार, स्वार्थ-परमार्थ आदि स्वाभाविक एवं अस्वाभाविक व्यापार चलते रहेंगे एवं इनकी सूत्रात्मक व लयात्मक अभिव्यक्ति समर्थ रचनाकार करते रहेंगे. सूक्ष्म एवं सटीक भावांकन के लिए कविता में तुकांत ही नहीं बल्कि टूटे तुक की अर्थात लययुक्त अतुकांत रचना की अनिवार्यता आ जुटी है, बढ़ चली है. कविता के बिना समाज का लय पाना, समाज में लय आना कभी संभव नहीं होगा!