व़क्त की पुकार
गुम़सुम़ सी सड़कें , गुम़सुम़ सी गलियां, खाली-खाली सा मंज़र , कुछ कहानी कह रहा है।
अब इंसान मज़बूर होकर अपने ही घर में क़ैद होकर रह गया है।
अपनों से न मिल पाने की बेब़सी स़ालती है।
बेताब़ दिल की धड़कनें भी ये सवाल पूछती है।
क्या इंसान इतना कमज़ोर होकर रह गया है ?
जो एक अद़ने जरास़िम से डरकर रह गया है ?
बड़ी-बड़ी सलाहिय़ते नई नई खोजों का दम भरती है।
पर इस छोटे से जरास़िम का तोड़ खोज नहीं सकती हैं।
बड़े-बड़े तरक्क़ीश़ुदा मुल्क भी इसके आगे घुटने टेक रहे हैं।
जिन्हें देखकर तरक्कीपज़ीर मुल्क भी अपना हौस़ला खो रहे हैं।
अपनी-अपनी अक्ल़े लगाकर बचने की नई-नई तरक़ीबें खोज रहे है।
इस बात से बेख़बर के ये जरास़िम इंसान ने ही ईज़ाद किया है।
जिसे ईज़ाद करने के बाद उसका तोड़ खोजना वो भूल गया है।
जिसका खाम़ियाज़ा तो वो ख़ुद भुगत चुका है ।
और भुगतने के लिए सारी दुनिया को भी मज़बूर कर दिया है।
दुनिया में अपनी ताक़त क़ायम करने के लिए उस कमज़र्फ ने ये हथकंडा अपनाया है ।
अपनी हव़स की खातिर उसने लाखों को मौत की नींद में सुला कर इंसानिय़त को शर्म़सार किया है।
व़क्त की पुकार है जाग जाओ दुनिया वालों ।
बेनक़ाब कर दो इस इंसानिय़त और अम़न के दुश़्मन को।
कर दो नेस्तनाब़ूद उसके नाप़ाक इऱादों और चालों को।
रहे सलाम़त इंसानिय़त और अम़न इस जहांं में।
फिर ना कोई बने इनका दुश़्मन इस ज़माने में।