“वह पगली”
पता नही कहाँँ से आई थी “वह पगली”,
सबकी आँँखोंं को बड़ी ही भायी थी “वह पगली”।
बडी अजीब थी, मलिन चेहरा ,मरियल सी देह,
कांंतिविहिन काया की धनी थी “वह पगली”।
कभी मंंदिर की सीढ़ियोंं पर , कभी हाट-बाज़ारोंं मेंं,
कभी नदियोंं-नालोंं पर बैठी नजर आती “वह पगली”।
आकर जब भी पास खड़ी होती थी,
अज़ीब ईशारोंं मेंं बातेंं करती “वह पगली”।
कभी जो मैंं कुछ दे देती, वो खुश हो जाती,
कभी जो मैंं टरका देती,तो मुझको गरिया जाती “वह पगली”।
शायद हो उसके मन मेंं, कोई अधूरी अभिलाषा
पर मुख पर सदा ही रखती हर्ष की भाषा “वह पगली”।
चेहरे के ऊपर पुती हुई ,गंंदगी के भीतर,
होता मुझको था आभास, थोडी सी सुंंदर है “वह पगली”।
आदत हो चुकी थी ,उसके रोज दिखने की,
जो ना दिखती मन ये कहता, कहाँँ गई “वह पगली”।
दुनिया उसको पागल कहती मगर,
बडे शांंतभाव से सज्जनोंं के, झगड़े निहारा करती “वह पगली”।
और जब नजरेंं मुझसे टकरा जाती सहज ही,
सवालोंं के कटघरे मेंं मुझको, खड़ा कर जाती “वह पगली”।
“बताओंं कौन है पागल तुम या मै ?”
मुझ “सभ्य” को सदा ही निरुत्तर कर जाती “वह पगली”।
उत्तर को ढुढ़ने मेंं ,मैंं हमेशा खो जाती,
और मुझपर हँँसकर हमेशा निकल जाती “वह पगली”।
दिशाओंं का भ्रम हमेंं रहता जीवन भर,
पर रातोंं को भी अपने घरौदेंं मेंं, सही से पहुँँच जाती “वह पगली”।
भागते रहते है हम पैसे,नाम और शौहरत के पीछे,
कुछ नही है पास उसके फिर भी देखो, लोगो मेंं बहुत
ही है मशहूर “वह पगली”।
#सरितासृृजना