वह नारी है
नारी का वह अद्भुत रूप,
उमा, भारती, जगदम्बा स्वरूप,
गंधमय उससे घर का कोना,
उसके पदचिन्ह से भाग्योदय होना,
आती जो मां-बाप का घर छोड़,
उसकी जिंदगी का विचलित वह मोड़,
जहां पर व्यतीत करती उम्र सारी है!
वो भार्या है, पत्नी है,
सर्वत्र है वह नारी है!!
अजनबी रिश्ते, अजनबी दीवारें,
हमसफ़र सागर लहर वह किनारे,
फिर भी समाती है।
बंधन अटूट बना जन्मों तक,
सुख – दुःख में हर लम्हों तक,
सह पति के बिताती है।
गुंजती किलकारियां उसके होने से,
रक्त-लौ से मिटाती अंधियारी है!
वो भार्या है, पत्नी है,
सर्वत्र है वह नारी है!!
उसकी पायल की खनक सुनकर,
रसोई के बर्तन नाचते हैं।
कपड़े बांहें फैला फैला कर,
धूलने उनके हाथों से भागते हैं।
अगरबत्तियां पूजन में धूंआ बन जाती,
रात्रि नक्षत्र उसे देखने को जागते हैं।
निहारती वो तब चंदा भी शर्माता,
जड़ है, पेड़ है, शाखा है, फुलवारी है!
वो भार्या है, पत्नी है,
सर्वत्र है वह नारी है!!
झाड़ू उछल उछल कर गाता है।
भोर तब आंगन तक आता है।
चूल्हा,चकला,तवा और चिमटा,
बेलन भी रोटी गोल बनाता है।
जब खनकती है सतरंगी चूड़ियां,
‘मुसाफिर’ बैठा देख छंद रचाता है।
मुस्कराती है तिरछी निगाहों से,
मानो आंगन की तुलसी प्यारी है!
वो भार्या है, पत्नी है,
सर्वत्र है वह नारी है!!
रोहताश वर्मा ‘मुसाफ़िर’