वह ग़ज़ल जो शकील बदायूंनी को इल्म से फ़िल्म तक ले गई
ज़िंदगी के कुछ लम्हे बहुत यादगार होते हैं, जो कामयाबी के रास्ते खोल देते हैं। यहां तक कि इंसान को अर्श से फ़र्श तक पहुंचते देर नहीं लगती। महान नग़्मा निगार शकील बदायूंनी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक ग़ज़ल ने उन्हें छोटे से शहर बदायूं से मुंबई के फिल्मिस्तान पहुंचा दिया। बात 1946 की है। शकील बदायूंनी शायरी के समंदर में खूब गोते लगा रहे थे। अलीगढ़ के बाद यह दिल्ली का पड़ाव था। वहां सप्लाई महकमे में नौकरी कर रोज़ी-रोटी का जुगाड़ भी कर लिया था। उन दिनों दिल्ली में ही एक बड़ा मुशायरा हुआ था। शकील बदायूंनी ने अपनी ताज़ा ग़ज़ल पढ़ी –
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद दुआ दी
तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे
वो नवा-ए मुज़्महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन
वो सदा-ए-अहल-ए-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
ये अदा-ए बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे
जो नक़ाबे रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही है
मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे
वही इक ख़मोश नग़्मा है ‘शकील’ जान-ए-हस्ती
जो ज़बान पर न आए जो कलाम तक न पहुँचे
फिर क्या था, वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। दूसरे लफ़्ज़ों में कहा जाए तो शकील साहब मुशायरा लूट चुके थे। मुशायरे में फिल्म डायरेक्टर ए.आ.र कारदार भी मौजूद थे, उन्होंने इस गज़ल को सुना तो वो शकील साहब के हुनर के कायल हो गए। इसके बाद कारदार ने शकील साहब को मुंबई आने की दावत दे दी। सबसे पहले नौशाद के संगीत वाली फ़िल्म ‘दर्द’ के गाने लिखने की ज़िम्मेदारी मिली, जिसको शकील बदायूंनी ने बखूबी निभाया।
पहली कोशिश रंग लाई, फिर लगातार फ़िल्मों के गाने लिखने का मौका मिला। फ़िल्में हिट, सुपरहिट होती रहीं।
यह सिलसिला ऐसा शुरु हुआ कि कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ता ही गया। नतीजा यह हुआ कि शकील साहब और उनके लिखे गीतों वाली फ़िल्मों के हिस्से में आठ फ़िल्म फे़यर अवॉर्ड आए। यह ख़ुद में एक रिकॉर्ड है। शकील बदायूंनी के तमाम गीत आज भी प्रासंगिक हैं। ‘इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके, अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, यह ज़िंदगी के मेले, छोड़ बाबुल का घर, जोगन बन जाऊंगी, ओ दुनिया के रखवाले, चले आज तुम जहां से, अफ़साना लिख रही हूं, चौदहवीं का चांद हो, तेरी महफ़िल में किस्मत, पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, हम दिल का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे, मधुबन में राधिका नाचे रे…’ जैसे गीत आज भी शकील साहब को अमर किए हुए हैं।
@ अरशद रसूल