वसंत और पतझड़
विधा-ललित छंद
सृजन हुआ जीवन का प्रतिपल, मंगलमय जग सारा।
फूट रहे हैं नव किसलय-दल, कितना सुखद नजारा।
प्राण-भरा भू के कण-कण में, सजी दिशाएँ सारी।
वृक्ष लदे फूलों से कितने, हुए फलों से भारी।
महक रहा मदमस्त पवन भी, कली खिली हर डाली।
अभिवादन करता है भू-मन, मोहक छटा निराली।
मस्ती के कितने रंग भरे, मौज भरा मौसम है।
घोल रही जो अमृत -कलश में, प्रेम भरा आलम है।
हाय! बड़ा निष्ठुर पतझड़ है, उजड़े बाग-बगीचे।
पत्र-विहीन-वृक्ष सूखे -से, सिर्फ बचे हैं ढाँचे।
पहले जैसे विटप नहीं है, मौसम रूप बदलते।
कुसुम वादियाँ वीरान हुईं , भू श्मशान से लगते।
हर ऋतु को सम्मान दिया जग, पर पतझड़ को भूला।
रंग-बसंती भाया सबको, औ सावन का झूला।
लिया जन्म पतझड़ से ही है,जीवन की सौगातें।
उर्वर अवनी को करता है, उपवन फूल खिलाते।
बदलावों का क्रम चलता है, जीवन चक्र यही है।
अंत सदा आरंभ रहा है, केवल अंत नहीं है।
मध्य रात्रि की नींद मृत्यु है, जीवन मध्य दिवस है,
जीना-मरना अटल सत्य है, इस पर किसका वश है।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली