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24 Nov 2021 · 1 min read

वर्षगाँठ

काल के बेपरवाह प्रवाह में
बीतते जाते हैं’साल’
और हाँ’वर्ष’ भी
धीमे-धीमे
चुभते या आनंदित करते
बीत ही जाते हैं
बहती हैं धाराएँ प्रेम की
कहीं कहीं
कहीं नफ़रत रुकने का नाम नहीं लेती
साल में ‘गिरह’ तो लगते हैं
वर्ष में’गांठें’ भी लग ही जाती हैं
अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं
दोनों
‘गिरह और गांठें’
पूरे वर्ष ये ‘गिरह’
ये ‘गांठें’
मंझधार में भी खुलने का
खुल जाने का
भरसक यत्न करती हैं
मधुर संबंध में
आरंभ से आरती
और क्षमा प्रार्थना तक का दौर
चलता रहता है
कोई मनाता है
कोई मान जाता है
चलती रहती है यात्रा
नेह की,स्नेह की
साल में एक और गिरह
वर्ष में एक और गाँठ
बस मनते चले जाते हैं
टूटती साँसों के साथ
‘वर्षगाँठ’
और हाँ
‘सालगिरह’ भी।
–अनिल मिश्र,’अनिरुध्द’

Language: Hindi
472 Views
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