वर्तमान_परिदृश्य
#वर्तमान_परिदृश्य…………!!±
कहकहे गायब हुए सब, घर हुआ शमशान जैसा।
मिट रही इंसानियत क्यों? धन हुआ भगवान जैसा।।
पूजते पाषाण को हैं, नाम का भगवान है जो।
भक्त भी बनते वहीं हैं, अब यहाँ धनवान है जो।।
यह शिला को मान देते, देव के सम्मान जैसा।
मिट रही इंसानियत क्यों? धन हुआ भगवान जैसा।।
आज रिश्तों में नहीं है, प्रेम करने की पिपासा।
मार कर संबंध को सब, खोजते हर दिन असासा।।
मान देना श्रेष्ठ को क्यों? अब लगे विषपान जैसा।
मिट रही इंसानियत क्यों? धन लगे भगवान जैसा।।
बात अब अपनत्व की क्यों? कष्ट मन को दे रही है।
छल कपट अरु द्वेष ईर्ष्या, प्राण ही हर ले रही है।।
संग अपनो का हमें अब, क्यों लगे नुकसान जैसा?
मिट रही इंसानियत क्यों? धन लगे भगवान जैसा।।
धर्म को धंधा बनाकर, कर रहे धन की उगाही।
मान इनको देवता सब, फँस रहे अंजान राही।।
छल रहे संसार को यह, दे दगा हैवान जैसा।
मिट रही इंसानियत क्यों? धन लगे भगवान जैसे।।
हे ! जगत पालक कहूँ क्या, देख लो तुम ही मुरारी।
खोल दो प्रभु ! नेत्र तीजा,भस्म हों सब दुर्विचारी।।
पाप से बोझिल धरा पर, आ बसो मेहमान जैसा।
मिट रही इंसानियत क्यों? धन लगे भगवान जैसा।।
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’