वर्तमान का कलयुग
वर्तमान का कलयुग
रिश्ते में टूटे लोग बटवारा कर रहे हैं,
परवरिश से छूटे लोग अनाथाश्रम में रह रहे हैं।
हालत और उम्मीद से टूटे लोग आत्महत्या कर रहे हैं,
परवरिश अनाथ कर रही है, बुद्धि रिश्ते खराब कर रहे हैं।
कभी जो घर थे प्यार के आँगन,
अब वह बने हैं झगड़ों का मैदान।
माँ-बाप के सपने थे संतान के लिए,
अब वे बसते हैं अकेलेपन की मचान।
कल तक जो बच्चे थे माँ-बाप की आँखों का तारा,
आज वही बच्चे जी रहे हैं दुखी, बेसहारा।
समाज का बंधन, संस्कारों का संबल,
टूट रहे हैं रिश्ते, बन रहा है अनैतिक जंगल।
नाउम्मीदी हताशा जान ले रही है,
जीवन की राह में मौत का साया छा रहा है।
राहत की उम्मीद में भटकते लोग,
जी रहे हैं वे दर्द के हर कोने में।
आधुनिकता के नाम पर हम हुए पराये,
संवेदनाओं को भुलाकर, हमने रिश्ते तोड़ डाले।
तकनीक के युग में, इंसानियत पीछे छूट गई,
कंप्यूटर स्क्रीन की चमक में, हमारी आत्मा रूठ गई।
सुकून के पल, जो कभी थे साथ,
आज वे खो गए, जैसे कोई बीती रात।
समृद्धि के दौड़ में हम पीछे रह गए,
मन की शांति, अब किसी और जहां में बह गए।
ममता की छांव में जो थे पलते,
आज वे अनाथाश्रम के दर्द में जलते।
माँ की गोद, पिता का कंधा,
अब बस यादें हैं, जैसे कोई भूला हुआ अंधा।
बुद्धि ने रिश्तों को ठुकराया,
स्वार्थ की आग में, हमने अपनापन जलाया।
पैसों की चमक में खो गए रिश्ते,
हमारी संवेदनाएँ, अब बन गईं किस्से।
यह है वर्तमान का कलयुग,
जहां आत्महत्या बन गई है राह।
जीवन से हारकर, लोग छोड़ रहे हैं जंग,
यह समय है, यह दौर है, एक बुरी चाह।
पर कहीं न कहीं, अभी भी उम्मीद बाकी है,
रिश्तों की डोर में अब भी कुछ ताकत बाकी है।
प्रेम और करुणा का दीप जलाना होगा,
अंधेरे में रोशनी की किरण लाना होगा।
आओ मिलकर हम फिर से रिश्ते बनाएँ,
एक दूसरे के दर्द को समझें और बाँटें।
आधुनिकता की दौड़ में इंसानियत न खो जाए,
मनुष्य को फिर से मनुष्य बनाएं, यह जीवन है, इसे संवारें।