वर्ण व्यवस्था
अतीत की वर्ण व्यवस्था
था कर्म प्रधान होता रहा,
फिर भी इस सत्य को
आज कोई स्वीकारता कहाँ।
मांस – भक्षी भूदेव आज
सर्वत्र है विचरण कर रहे,
तिलक लगाए वणिक
आज है वेद पाठी हो रहे।
पद स्पर्शण में एक असीम
सुख की अनुभूति कर रहे,
शून्य में विचरण करते हुए
बस सप्तपदी ही पढ़ रहे।
विधर्मी संस्कृत भाषा में
धारा प्रवाह है बोल रहे,
चतुर्वेद परायण वे सब
अनवरत आज है कर रहे।
पर क्या मजाल कि वे
पुरोहित किसी का बन सके,
बस ऋचाओं को लिये वे
एक दिवास्वप्न लिए घूम रहे।
छाया आज भी जो गर पड़े
सर्वस्व इनका मैला होता है,
अगर कुछ तर्क की बाते हो
तो बहुत ही झमेला होता है।
कोई कुछ भी कितना कहे
आज भी जात-पात में भेद है
निर्मेष मुझे बस यही लगता
जैसे मानवता में कोई छेद है।
निर्मेष