वटवृक्ष…….!
आज याद आती है-
पिताजी की वो बातें
थकान और तनावग्रस्त आकर
लंबी सांसे ले बिस्तर पर ऐसे बैठना
जैसे-
किसी परिंदे को मिला हो अपना बिछड़ा परिवार
सुकून भरी शाम की चाय
और
माँ की ममतामयी मुस्कान की मिठास के बीच उनका बोलना-
“बहुत मुश्किल है मगरमच्छों के बीच रहना
न जाने कौन ,कब और कहा निगल जाये-
इस संस्कृति की अजीब व्यवस्था है-
यहाँ ज़िन्दगी भी उत्कोच मांगती है|
धन और सिफारिशों के इस खेल में मैं तो विपन्न सा प्रतीत होता हूँ|
कुछ क्षण अपलक शून्य में निहारते-
धीरे से मुस्कुरा कर प्रश्न करना-
भौतिकता के इस युग में, मेरे व्यक्तित्व की नैतिकता क्या अप्रासंगिक है?
सिफारिशों के इस दुर्धर्ष लपट में –
मेरी कर्मठता का हठयोग, क्या अप्रासंगिक है?
इस व्यवहारिकता के पैमाने में-
मेरी मित्रता की परिभाषा, क्या अप्रासंगिक है?
आदर्शों और सिद्धान्तों से सींचा मेरा जीवन, क्या अक्षम्य है?
फिर,
मेरी ओर देख-
उनका यह कहना —
बेटा, तू भी मेरी इन मूल्यों में सींचा मेरा स्वप्न है,
मेरा वटवृक्ष है|
तू तो छाया देगा न?
और मैं, मन ही मन कहता —-
यह छाया आपकी ही तो है
आपको शीतल करने को सदैव तत्पर|
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