वजूद
अक्सर ढूंढती हूँ अपना वजूद,
एक बेटी की तरह..
एक बहन की तरह,
बड़ी हसरत से..
बड़ी बेचैनी से,
और पाती हूँ बस ;
खुद को तन्हा..
बेबस यतीम सी,
क्योंकि उतर न पाई..
उम्मीदों पे खरी,
या थी अनचाही..
बस खामोशी से,
टूटती रहीं ..
हर ख्वाहिश जैसे,
ख्वाब सी..
ख्वाब ही रह गयी,
और मैं भी वही..
टूटती हुई सी,
तन्हा आसमान में;
टूटते सितारे की तरह..
तन्हा..
जिसका टूटना,
खुश कर जाता है..
अक्सर दुनियाँ को,
और दुनियाँ टूटते तारे को देख..
आंखें बंद कर,
दुआ मांगती है..
खुद के ख्वाब जुड़ने की,
मैं बस ढूंढती रही..
अपना वजूद पर,
पा न सकी कहीं..
घर के किसी हिस्से में,
अपना एक कोना..
या परिवार में खुद का होना,
अब भी बिना वजूद,
ढूंढती हूँ खुद को,
पर उम्मीद करती हूं..
एक दिन उड़ जाऊंगी..
आज़ाद इन झूठ के,
बनावटी रिश्तों से..
जो बस दम घोंटते हैं,
और ख्वाहिशें..
बस अपनी खातिर,
जीने वाले ये लोग..
जिनमें ढूंढती हूँ मैं ,
कोई अपना…
जो शायद कभी नहीं थे,
न होंगे..
पर अफसोस..
इनका न होना ही मेरे लिए,
कुछ होने जैसा है..
क्योंकि जो कुछ है,
बस यही हैं;
बस यही….