वक्त-वक्त की बात है
#दिनांक:-6/4/2024
#शीर्षक:-वक्त-वक्त की बात है।
कट्टी पक्की की यारी,
रोज होती नयी त्यौहारी।
दिल दौलत से अमीर था,
पहले झगड़े फिर मनुहारी।
गद-गद हो जाता तन-मन,
गर्मी की छुट्टी में रमता मन।
नानी की प्यार वाली दवाई,
चाय में घुलती सुबह सबेरे लाई।
चीनी नहीं हम गुड़ के थे साथी,
भाती हमको बस सवारी हाथी।
बड़ी मनमोहक बड़े कामदार थे,
हमीं चोर हमीं हवलदार थे ।
माँ समान आलिंगन करते भाई-बहन,
तनिक भी दूरी ना होती थी सहन ।
अब चलन दूरी का चल पड़ा है,
अब साथ न रहने की जिद पर अड़ा है।
आज हँसी-ठिठोली के दिन लद गए ,
सच्चाई भी झूठे मजाक बन गए।
बड़ा याद आता अपना बचपन,
महक दूर तक पहुॅचती पूरी छनन।
चाव और चाह थे एक पथ के राही,
नरकट की कलम थी दवात भरी स्याही।
रगड़-रगड़ कर रोज सुबह छिड़कते दुद्धी,
एक बार मार खाते आ जाती थी बुद्धी।
वक्त-वक्त की बात है,
फोन से ही दिन और फोन ही रात है….।
(स्वरचित,मौलिक)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई