वक्त परिवार और परवरिश
वर्तमान समय मे अगर गौर से देखा जाये तो बच्चे कितनी वंचनाओं में जिंदगी गुजारने के लिए विवश है… कहीं न कहीं पैरेंट्स और वर्तमान शिक्षा पद्धति जो उन्हें उम्र से जल्दी बड़ा करने की जद्दोजहद में उनके बचपन को छीन रही… दूसरी तरफ भेड़ चाल जैसा चलता आपसी माहौल,, हम खुद अपने बच्चो को लेकर इतना सहज नही है जितना कि उन्हें बनाना चाहते!
जबकि हमारा बचपन उनके बालपन से कही जय्यादा सहज रहा, हमारे ऊपर पैरेंट्स और स्कूल का इतना दबाव नही था उसके बावजूद पैरेंट्स के लिए एक सम्मानित डर रहता था,
हम कई बार अपने जोखिमो को छिपाते थे, स्कूल के दिनों के झगड़े मारपीट या किसी भी भाई बहन के झगड़े खुद उलझ कर खुद सुलझा लिया करते थे, कई बार तो मामला महीनों बाद पैरेंट्स के सामने आते कि हम गिरे पिटे या पीट कर आये , कब झगड़े कब उलझे …
हमारे मन मे कोई अपराधबोध नही होता था सिवाय इस डर के पैरेंट्स उस बात को मामूली मानकर हमे ही डांटेंगे, हमारे पास दोस्ती करने के लिए उसवक्त सिर्फ दोस्त और मनोरंजन के लिए साइकिलिंग, टीवी या फिर आउटडोर इनडोर गेम होते थे…
हम अपनी माँ से कही ज्यादा पितां से डरते थे, वक़्त के साथ हम बड़े हुए और पितां के कंधे दोस्ती के लिए थामे पर इस बात के लिए वक्त लगा जब पितां ने समझा हम दोस्ती और अपनी राय रखने के लिए समझदार हो चुके…
लेकिन आज के बच्चे शायद जन्म लेते ही अपराधबोध में दब जाते, हम उनके प्ले क्लास से ही टॉप चाहते, कंपेयर करते ,सभ्यता शिष्टता अनुसाशन , उठने बोलने खाने पीने से लेकर उनको हाइ स्टैंडर्ड मेनटेन देने की कोशिश करते, जिसमे कितनी बार उन्हें इस बात का एहसास करा देते वो कुछ नही कर सकते…. या तो कुछ मामलों में हम बहुत सख्त रवैया अपना रहे या फिर बहुत नर्म, अपने ही अपराधों को छिपा कहीं न कहीं हम गाहे बगाहे उन्हें दोष देते रहते, हमने खुद के लिए एक सीमित क्षेत्र बना लिया जिसमे न प्राकृतिक चीज़े है न बच्चो के स्वाभाविक सहजता वाली…. जिसके कारण न उनमें साहस है और न ही भय!
साहसी न होना हमने सिखाया, उसने जिस भी चीज़ को हाथ से छूना चाहा, चाहे वो कोई छोटा जानवर हो या कोई मामूली भौतिक चीज़ हमने अपने रोक टोक से उसे डरा दिया, हल्की सी चोट को हमने डॉक्टर इंजेक्शन मेडिशन यहां तक कि खुद के माथे पर चिंता की हज़ार लकीर समेटकर उसे पहले डरा दिया…. भय इसलिए नही है क्योंकि हमने स्मार्ट पैरेंट्स बन दोस्ती के लिए उसकी हरबात मान ली, अब पितां के अंदर बच्चो को उनसे छोटा बच्चा और मां के अंदर उनके हर व्यवहार पर रोकटोक करने वाली सख्त टीचर दिखती।
लेकिन सत्य यही है दोनो ही अपनी अपनी जिंदगी में अपराधबोध ढो रहे है ।