वक़्त ने करवट क्या बदली…!
वक़्त ने….
करवट क्या बदली….?
सब नज़ारे ही बदल गए.. !
एक वक़्त था…
तू अपना सा लगता था….!
तुझे….
मांगा था हमने…!
कुदरत की फ़िज़ाओं से….
हवाओं से….
घटाओं से….
दसों दिशाओं से….!
चला आया बनकर ….
हवा का एक झोका …..!
और….
उड़ा ले गया…..
मेरे सभी जज़्बात…..!
कर दिया खाली…..
हृदय के समन्दर को…..!
जहाँ कभी रक़्स करते….
लहरों के साथ….
इतराया करते थे….
प्रीत के जलते हुए दीए….!
वक़्त ने….
करवट क्या बदली….?
सब नज़ारे ही बदल गए.. !
एक वक़्त था…
तू अपना सा लगता था….!
तेरी फ़ितरत के….
चन्द नगीने पड़ गए भारी….
मुहब्बत पर…!
बाज रूपी झूठ….
सच्चाई पंजों में दबोच कर….
बैठ गया..!
भय का राक्षस….
खा गया हिम्मत को…..
और उम्मीद को….!
कर दिया भस्म….
मेरे प्यार और विश्वास को….
तेरे क्रोध के ज्वारभाटे ने……!
कुछ बेपरवाह….
तेरे इरादों ने….
वादों ने….
और अनकहे एहसासों ने….!
सब शून्य हो गया…!
वक़्त ने….
करवट क्या बदली….?
सब नज़ारे ही बदल गए.. !
एक वक़्त था…
तू अपना सा लगता था….!
वक़्त….
फिर करवट बदलेगा…!
डर को कील चुभोकर…
सर उठा….
बाहर आएगी उम्मीद की किरण…!
सात ताले तोड़कर….
सत्य लहराएगा अपना परचम…..!
गीत गाएँगी फ़िज़ाएँ..!
रक़्स करेगा सम्पूर्ण अस्तित्व….!
तुझे भी बदलना होगा….
यही क़ुदरत का नियम है….!
एक दिन मिलेगा ज़रूर….
मुझे मेरा
अपना नूर-ए-ख़ुदा…..!
‘माही’…..
वक़्त ने….
करवट क्या बदली….?
सब नज़ारे ही बदल गए.. !
एक वक़्त था…
तू अपना सा लगता था….!
©डॉ० प्रतिभा माही